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Lecture - 1st, on April 22nd 1965 Lecture - 2nd, on April 23rd 1965 Lecture - 3rd, on April 24th 1965 Lecture - 4th, on April 25th 1965 Presidential Speech at Calicut in Kerala in
December 1967
प्रस्तुत हैं पं. दीनदयाल उपाध्याय द्रारा “एकात्म मानववाद” विषय पर २२ से २५ अप्रैल १९६५ के बीच मुम्बई में दिए गए भाषणों के चार अध्याय:
a) अध्याय -1, 22 अप्रैल, 1965
मुझे आज शाम प्रारम्भ हुई वार्ताओं की श्रृखला में अविभाज्य मानवतावाद विषय पर अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए कहा गया है। पिछली जनवरी में विजयवाड़ा में भारतीय जनसंघ ने ' सिध्दान्त एवं नीतियाँ' के अंतर्गत ,अविभाज्य मानवतावाद' को स्वीकार किया था। यहां-वहां इस विषय पर विचार-विमर्श होते रहे हैं। यह अनिवार्य, है कि हम अविभाज्य मानवतावाद के सभी पहलुओं पर विचार करें।b) अघ्याय-2, 23 अप्रैल, 1965
स्वतंत्रता के पश्चात् कल तक हम यह देखते थे कि हमें अपने देशवाशियों के चुँहमुखी विकास के लिए किस दिशा की ओर अग्रसर होना है और इस तथ्य पर हम चिंतन भी करते रहे हैं। सामान्तया इस प्रश्न पर लोग गंभीरता से विचार करने के लिए तैयार नहीं है। वे केवल समय-समय पर सामने आने वाली समस्याओं के संबंध में विचार करते है।
c) अघ्याय-3, 24 अप्रैल, 1965
कल हमने मानव के स्व-अस्तित्व पर विचार किया था। स्व-अस्तित्व या व्यक्तित्व के विभिन्न पहलू और व्यक्ति की आवश्यकताओं के भिन्न-भिन्न स्तर हैं। व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के लिए और सभी स्तरों पर व्यक्ति की आवश्यकताओं की परिपूर्णता के लिए कुछ विशेष उपायों की आवश्यकता है। परन्तु मानव की केवल व्यक्तिगत पहचान पर्याप्त नहीं है। शरीर, बुध्दि, तथा आत्मा केवल ''मैं'' के अन्तर्गत नहीं आता वरन् उसका अस्तित्व ''हमें'' में ही निहित है। अत: हमें समूह और समाज के बारे में भी सोचना चाहिए।
d) अध्याय 4, 25 अप्रैल, 1965
कल हमने राष्ट्र के अंतर्गत राज्य के कार्यों पर विचार विमर्श किया था। भारतीय परम्परा के अनुसार एक राष्ट्र उन लोगों की बदौलत होता है जो उसमें रहते हैं और उसका सृजन किसी समूह के द्वारा नहीं किया जाता और जबर्दस्ती उसे बनाया भी नहीं जा सकता । राष्ट्र की आवश्यकतानुसार कई प्रकार की संस्थाएं अस्तित्व में आती हैं जो उसे मौलिक व्यवस्था प्रदान करती हैं। राज्य इन संस्थाओं में से ही एक है और नि:संदेह उसकी अहम् भूमिका है लेकिन वह सर्वोपरि नहीं है।