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Lecture - 1st, on April 22nd 1965 Lecture - 2nd, on April 23rd 1965 Lecture - 3rd, on April 24th 1965 Lecture - 4th, on April 25th 1965 Presidential Speech at Calicut in Kerala in
December 1967
अध्याय-1, 22 अप्रैल, 1965
मुझे आज शाम प्रारम्भ हुई वार्ताओं की श्रृखला में अविभाज्य मानवतावाद विषय पर अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए कहा गया है। पिछली जनवरी में विजयवाड़ा में भारतीय जनसंघ ने ' सिध्दान्त एवं नीतियाँ' के अंतर्गत ,अविभाज्य मानवतावाद' को स्वीकार किया था। यहां-वहां इस विषय पर विचार-विमर्श होते रहे हैं। यह अनिवार्य, है कि हम अविभाज्य मानवतावाद के सभी पहलुओं पर विचार करें। जब कि हमारा देश ब्रिटिश शासन के अधीन रहा। देश के सभी आन्दोलनों एवं नीतियों का उद्देश्य विदेशी शासकों को भगाना एवं स्वतंत्रता प्राप्त करना था। स्वतंत्रता के पश्चात् भारत का क्या स्वरूप, उभरेगा? हमारी दिशा क्या होगी? इन पर भी विचार हुआ। यह कहना ठीक नहीं होगा कि इन पहलुओं पर कोई विचार नहीं हुआ। हमारे समाज में उस समय भी ऐसे लोग विद्यमान थे जिन्होंने इन प्रश्नों पर विचार किया। स्वयं गांधी जी ने अपनी पुस्तक 'हिन्द स्वराज' में स्वतंत्र भारत के संबंध में अपने विचार प्रस्तुत किए थे। इससे पूर्व, लोकमान्य तिलक ने अपनी पुस्तक 'गीता रहस्य' में दर्शनशास्त्र के आधार पर भारत के पुनर्जागरण पर विचार-विमर्श किया। उन्होंने तात्कालिक विश्व की विचारधाराओं का तुलनात्मक विचार-विमर्श किया है।
इसके अतिरिक्त, कांग्रेस एवं अन्य राजनैतिक पार्टियों ने समय-समय पर विभिन्न संकल्पों को अंगीकार किया था जिसमें इस विषय के कई सन्दर्भ शामिल थे। तथापि इस विषय पर अधिक और गंभीर अध्ययन किए जाने की आवश्यकता थी। इस मुद्दे पर गंभीर रूप से ध्यान इसलिए भी नहीं दिया गया था क्योंकि सभी का विश्वास था कि पहले ब्रिटिश शासकों को भगाया जाए तत्पश्चात् अन्य मुद्दों पर विचार किया जाए। यह संगत प्रतीत नहीं होता कि विदेशी शासकों के रहते हुए आन्तरिक मामलों पर समय व्यर्थ किया जाए इसलिए विचारों में भिन्नता होने पर भी उन्होंने थोड़े समय के लिए इसे निकाल दिया।
फलस्वरूप, वे भावी भारत का आधार समाजवाद में देखते थे, वे समाजवाद के एक समूह के रूप में काँग्रेस में कार्य करते रहे। उन्होंने एक अलग पार्टी का गठन का प्रयास किया।
क्रांतिकारी अपने-अपने तरीकों से स्वतंत्र रूप से कार्यरत थे। लेकिन सभी स्वतंत्रता-प्राप्ति को सर्वोच्च ध्येय मानते थे।
स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात् स्वाभाविक रूप से प्रश्न यह उभर कर आया कि अब हम स्वतंत्र हैं, हमारी प्रगति की क्या दिशा होगी? यह एक गंभीर चिन्तन का विषय है कि आज स्वतंत्रता के 17 वर्षों के पश्चात् भी हम यह नहीं कह सकते हैं कि कौन सी दिशा निर्धारित की गई है।भारत किस ओर
समय-समय पर काग्रेस के कार्यकर्ताओं अथवा अन्यों ने अपने उद्देश्यों के अनुरूप देश को कल्याणकारी राज्य, समाजवाद उदारवाद घोषित किया है। नारे गढ़े गए परन्तु इन ''सैध्दांतिकी नारों का दर्शन से कुछ लेना-देना नहीं था। मैं यह व्यक्तिगत विचार विमर्श के आधार पर कह रहा हूँ। विचार-विमर्श के दौरान एक सज्जन ने सुझाव दिया कि कांग्रेस के विरुध्द संयुक्त मोर्चा होना चाहिए ताकि एक मजबूत टक्कर दी जा सके। आजकल इस रणनीति को राजनैतिक दलों ने अंगीकार कर लिया है। इसलिए इस सुझाव को अग्रसारित करना आश्चर्यचकित था। तथापि, स्वाभाविक रूप में, मैं पूछता हूँ कि हमें आगे क्या कार्यक्रम अंगीकार करना होगा? यदि ऐसा संयुक्त मोर्चे का गठन होता है तब हमारी आगे क्या आर्थिक नीति होगी? हमारी विदेश नीति क्या होगी? इन प्रश्नों पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।
इन प्रश्नों पर विचार करना होगा। जिसे आप पसन्द करें उसे अंगीकार कर सकते हैं। हम माक्र्सवादियों से पूंजीवादी कार्यक्रमों तक को समर्थन देने के लिए तैयार है उन्हें किसी भी प्रकार के कार्यक्रम को अंगीकार करने में मुश्किल नहीं थी। उनका एकमात्र उद्देश्य था कि किसी भी प्रकार से कांग्रेस पराजित होनी चाहिए।
हाल ही में केरल में चुनाव हुए थे। माक्र्सवादी, मुस्लिम लीग, स्वतंत्र पार्टी, एस.एस.पी. विरोधी कांग्रेस, जो कि केरल कांग्रेस के रूप में जानी जाती है, क्रांतिकारी समाजवादी पार्टी इत्यादि ने चुनाव के दौरान गठबंधन किया। इन पार्टियों की परिभाषा, विचारधारा, सिध्दान्त एवं उद्देश्य अलग-अलग हैं। जहां तक सिध्दान्तों का संबंध है, अब इस प्रकार की स्थिति है। कांग्रेस की भी यह स्थिति है। उसने अपने उद्देश्यों में प्रजातांत्रिक समाजवाद का दावा किया है परन्तु कांग्रेस के विभिन्न नेताओं के व्यवहार से स्पष्ट रूप से एक तथ्य उभर कर सामने आया है कि कांग्रेस की कोई परिभाषा, सिध्दान्त एवं निर्देश नहीं है। काग्रेस में कम्युनिस्ट भी है जो पूंजीवाद में विश्वास करते है वे समाजवाद का विरोध करते है। कांग्रेस में सभी श्रेणी के व्यक्ति हैं। अत: हम कांग्रेस में सभी श्रेणी के व्यक्ति हैं। अत: हम कांग्रेस को एक ऐसा जादुई पिटारा कह सकते हैं जिसमें नाग एवं नेवला एक साथ रहते हैं।
यह विचारणीय है कि क्या हम ऐसी परिस्थितियों में विकास कर सकते हैं। यदि हम देश के सम्मुख आ रही समस्याओं के कारणों का विश्लेषण करना बंद कर दें तब हम पायेंगे कि दर्ुव्यवस्था के लिए मुख्य रूप से दिशा निर्देश एवं उद्देश्यों में भ्रांति हैं। मैं विश्वास करता हूँ कि भारत के सभी 450 मिलियन लोग सभी प्रश्नों पर ही नहीं अपितु एक भी प्रश्न पर सहमत नहीं हो सकते। यह किसी भी देश में संभव नहीं है। किसी भी देश के लोगों की कम या अधिक समान इच्छाओं को क्या पुकारा जाए। यदि सामान्य इच्छा को उद्देश्य का आधार बना लिया जाता है, तब सामान्य व्यक्ति महसूस करता है कि देश सही दिशा की ओर अग्रसर है क्योंकि उसे देश के प्रयासों में अपनी आकांक्षा नजर आती है। इसके अतिरिक्त, यह एकता की प्रबल संभावना को भी विकसित करती है। अक्तूबर/नवम्बर, 1962 में चीन के हमले के दौरान लोगों के प्रत्युत्तर में सच्चाई ही व्यक्त की गई थी। पूरे देश में उत्साह की एक लहर थी। बहुत अधिक मात्रा में बलिदान एवं त्याग किए गए। सरकार तथा जनता अथवा राजनैतिक पार्टियों में कोई तालमेल नहीं था। यह किस प्रकार हुआ। सरकार ने लोगों में महसूस की जा रही नीति को अंगीकार किया जिससे त्याग के आह्वान के साथ स्वयं-सम्मान की ज्वाला पैदा हो गई एवं परिणाम स्वरूप हम सब एक हो गये।
हमारी समस्याओं की जड़ें - स्वयं उपेक्षायह अनिवार्य है कि हम अपने राष्ट्र की पहचान के संबंध में विचार करें। इस पहचान के बगैर कुछ भी अर्थ नहीं है। केवल स्वतंत्रता खुशहाली एवं प्रगति का स्रोत बन सकती। जब तक हम अपनी राष्ट्रीय पहचान के संबंध में जागरूक नहीं होंगे तब तक हम अपनी सभी संभावनाओं का विकास नहीं कर सकते। विदेशी शासन में इस पहचान का उन्मूलन हो जाता है। इसलिए राष्ट्र स्वतंत्र रहने के इच्छुक होते हैं ताकि वे प्राकृतिक स्वरूप के अनुभव, विकास एवं अपने प्रयासों में तेजी ला सकें। प्रकृति शक्तिशाली है। प्रकृति के विरुध्द जाने से समस्याएँ उत्पन्न होंगी। प्रकृति को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यह संभव है कि संस्कृति के स्तर को प्राकृतिक संसाधनों के साथ उन्नत करें। दार्शनिकों ने कहा है कि विभिन्न प्राकृतिक घटकों की अवहेलना करके हमने विभिन्न मानसिक विसंगतियाँ पैदा कर ली हैं। ऐसा व्यक्ति अशान्त एवं उदास रहता है। उसकी निपुणता धीरे-धीरे बिगड़ एवं भ्रष्ट हो गयी है। जब प्राकृतिक संपदाओं को अनदेखा किया गया तब पूरे राष्ट्र में कई विकार उत्पन्न हुए। भारत के सामने आ रही समस्याओं का प्रमुख कारण अपने राष्ट्र की पहचान की अवहेलना करना है।
राजनीति में अवसरवाद से लोगों के विश्वास में कमीवे लोग जो आज देश का नेतृत्व कर रहे है एवं जो देश के मामलों में सक्रिय रुचि रखते हैं वे अधिकतर मूल कारणों से परिचित नहीं हैं। परिणामस्वरूप, हमारे देश में राजनीति अवसरवादियों का बोल-बाला है। पार्टियों एवं राजनीतिज्ञों का न तो कोई सिध्दान्त अथवा उद्देश्य अथवा न आचरण की कोई मानक संहिता है। कोई भी राजनैतिक व्यक्ति किसी भी पार्टी को छोड़ने एवं अन्य पार्टी में भर्ती होने को बिलकुल भी गलत नहीं मानता। पार्टियों में भागीदारी एवं विलय अथवा उनका विभाजन न केवल करार के रूप में अथवा सिध्दान्तों को भी परे रखते हुए चुनावों अथवा सत्ता की स्थिति को देखकर किया जाता है। 1939 में हनीफ मुहम्मद अब्राहिम मुस्लिम लीग की टिकट पर निर्वाचित हुए। तत्पश्चात् वे लोकाचार सिध्दांतों के तदनुसार कांग्रेस में भर्ती हुए एवं काँग्रेस की टिकट पर पुन: चुनाव में निर्वाचित हुए। 1948 में जब समाजवादियों ने कांग्रेस छोड़ी तथा समाजवादी पार्टी का गठन किया तब विधानमण्डल के सदस्यों ने त्यागपत्र दिया एवं समाजवादी पार्टी के टिकटों पर चुनाव की माँग की। परन्तु इसके पश्चात् इस परम्परा को भुला दिया गया जिसके परिणामस्वरूप जनता के दिमाग में राजनीतिज्ञों के प्रति अविश्वास की भावना पैदा हुई जिससे अखंडता भी संदेह के घेरे में आ गई। इसलिए इस स्थिति में परिवर्तन आना चाहिए अन्यथा एकता एवं अनुशासन की महत्ताा कम हो सकती है।
हमारी क्या दिशा होनी चाहिए?राष्ट्र चौराहे पर खड़ा है। कुछ लोगों का सुझाव है कि हमें वहां से शुरु होना चाहिए जहाँ हमने एक हजार वर्षों पहले छोड़ा था जब हमारे जीवन को विदेशी शासकों ने छोड़ा था। परन्तु राष्ट्र कपड़ा मात्र नहीं है जिसे समय के अंतराल में बदलकर पहन लिया जाए। इसके अतिरिक्त यह कहना भी तर्कसंगत नहीं होगा कि हजार वर्षों पूर्व के विदेशी शासन ने हमारे राष्ट्रीय जीवन में पूर्णतया बाधक बना दिया है। बदलते हुए परिवेश में आ रही चुनौतियों का सामना करने में हम सक्षम हैं। हमें अपने जीवन में संघर्ष को जारी रखना होगा। आज विसंगतियां हैं । बनारस में गंगा जल उतना स्वच्छ नहीं जितना हरिद्वार में है लेकिन फिर भी वह गंगाजल है और पवित्र गंगा है।
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