Deen Dayal Upadhyaya
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December 1967

अध्याय-1, 22 अप्रैल, 1965

-Pt. Deendayal Upadhyaya

और बहुत से गंदे नाले हैं। परन्तु इस सबका अलग से कोई अस्तित्व नहीं है। गंगा अनिवार्य रूप से स्वच्छ होनी चाहिए। यह एक बड़ी समस्या नहीं है। विश्व में अन्य भी राष्ट्र हैं जिन्होंने पिछले एक हजार वर्षों में उल्लेखनीय प्रगति की है। हमारा पूरा ध्यान स्वतंत्रता के लिए संघर्ष अथवा हमलावरों के नए गिरोहों को कुचलने की ओर होना चाहिए था, अन्यथा हम विश्व प्रगति में अपना अंशदान नहीं दे सकेंगे। परन्तु आज हम स्वतंत्र हैं इसलिए हमें इस विसंगति को जल्द दूर करना है एवं विश्व के अन्य विकासशील राष्ट्रों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अपने पैरों पर खड़ा होना है।

इस मुद्दे तक विचारधाराओं में भिन्नता का कोई स्थान नहीं है। समस्या तब खड़ी होती है जब हम पश्चिमी देशों में हुए विकास के कारणों, प्रभावों को पहचाने में असफल रहते हैं। यह भी सत्य ही है कि एक पश्चिमी देश ब्रिटेन ने कई शताब्दियों तक हमारे देश मंभ शासन किया। इस अवधि के दौरान उन्होंने ऐसे कुछ उपायों को अंगीकार सूक्ष्म रूप में पश्चिम की मान्यताओं का सृजन किया। इस देश में उनका वैज्ञानिक विकास, उनके जीवन का तरीका, एवं खाने की आदतें इत्यादि हमारे जीवन में समा गई। और भारतीयता कहीं खो गई।

उनके विज्ञान अपितु सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा शिक्षा सिध्दान्त हमारे लिए एक स्तर का प्रतीक बन गए हैं। आज इस देश में स्पष्ट रूप से इसका प्रभाव छलकता है। हमें यह निर्णय लेना है कि क्या यह प्रभाव हमारे लिए अच्छा या बुरा है। ब्रिटिश चले गए हैं परन्तु पश्चिमी सभ्यता प्रगति के साथ पर्यायवाची बनी गई है। यह सत्य है कि हमें राष्ट्रीयता की संकीर्ण सोच को देश के विकास में बाधक नहीं बनने देना चाहिए। हांलाकि पश्चिमी विज्ञान एवं पश्चिमी जीवन का तरीका दोनों विभिन्न मुद्दे हैं। चूंकि पश्चिमी विज्ञान सार्वभौमिक है, इसलिए हमें यदि प्रगति करनी है तो इसे अंगीकार करना चाहिए। परन्तु इसकी जीवन पध्दति एवं मूल्य सत्य नहीं हैं। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो पश्चिम के आर्थिक एवं राजनैतिक तथा शिक्षा के क्षेत्र में हुई प्रगति को हमारे देश में लागू करना चाहते हैं। इसलिए निर्णय लेते समय हमें देखना होगा कि हमारे देश में आर्थिक राजनैतिक तथा शैक्षिक क्षेत्रों में विद्यमान स्थिति क्या है।

यूरोपीय राष्ट्रों का उदय

विभिन्न वादों ने पश्चिमी राष्ट्रों को प्रभावित किया जिसमें राष्ट्रवाद, प्रजातंत्र तथा समाजवाद के सिध्दान्त प्रमुख थे। इसी समय में कुछ देशों ने विश्व एकता एवं विश्वशांति के लिए प्रयास किए।

इनमें राष्ट्रवाद एक पुराना एवं मजबूत स्तम्भ है। रोमन शासन का पतन कैथोलिक चर्च-यूरोप के प्रभाव में कमी इसका जीता जागता उदाहरण है। हजारों वर्षों का यूरोप का इतिहास विभिन्न राष्ट्रों में उदय तथा संघर्ष की गाथा का साक्षी है। इन राष्ट्रों ने अपने आपको यूरोपीय महाद्वीप राष्ट्रवाद राष्ट्र एवं राज्य को एक साथ लाया। इसी समय रोमन कैथोलिक चर्च के प्रभाव में गिरावट से राष्ट्रीय चर्च अथवा धार्मिक क्षेत्रों से राजनैतिक क्षेत्र भी प्रभावित हुआ। इस स्थिति से धर्मनिरपेक्ष राज्य की संकल्पना विकसित हुई।

यूरोप में प्रजातंत्र का जन्म

यूरोप के राजनैतिक जीवन में प्रजातंत्र का क्रांतिकारी संकल्पना के रूप में गहरा प्रभाव पड़ा। प्रारम्भ में प्रत्येक राष्ट्र में एक राजा अध्यक्ष के रूप में होता था। परन्तु धीरे-धीरे षासकों के विरुध्द लोगों की सोच में जागरूकता आई। औद्योगिक क्रांति एवं अन्तराष्ट्रीय व्यापार के कारण सभी राष्ट्रों के व्यापार समुदाय में विद्रोह उत्पन्न हुआ। सामान्यत: इन नए केन्द्रों की शक्तियों तथा स्थापित राजाओं और सामन्तवादी मालिकों के बीच संघर्ष प्रारम्भ हो गया। इस संघर्ष ने दर्शन पर आधारित 'प्रजातंत्र' को अंगीकार किया। प्रजातंत्र की उत्पत्तिा यूनानी शहर-गणराज्य में हुई। सामान्य व्यक्ति प्रत्येक नागरिक की समानता, भाईचारा एवं स्वतंत्रता के आदर्शों की ओर आकर्षित हुआ। फ्रांस में खूनी क्रांति हुई। साथ ही इग्लैण्ड में समय-समय पर आंदोलन हुए। प्रजातंत्र का सुझाव सामान्य व्यक्ति के दिमाग में घर कर गया। राजतंत्र न केवल समाप्त हो गया अपितु शक्तियाँ भी छीन ली गईं एवं संवैधानिक सरकारें स्थापित हो गईं। आज यूरोप में पहले से ही प्रजातंत्र को स्वीकार कर लिया गया है। हिटलर, मूसोलिनी तथा स्टालिन जैसे तानाशाहों ने प्रजातंत्र को मान्यता दी।

व्यक्ति का शोषण

प्रजातंत्र ढांचे में प्रत्येक व्यक्ति को वोट का अधिकार था। परन्तु वास्तविक सत्ताा उसके साथ ही रहती थी जिसने क्रांति का नेतृत्व किया। औद्योगिक क्रांति ने उत्पादन की नई पध्दति का सृजन किया। श्रमिकों ने फैक्टरी-मालिकों से आर्डर लेते हुए कार्य करना प्रारम्भ कर दिया। श्रमिकों ने अपने गृह प्रदेशों के स्थान पर भीड़ वाले शहरों में कार्य करना प्रारंभ किया। आवास के लिए कोई व्यवस्था नहीं थी। श्रमिकों के संरक्षण के लिए फैक्टरी में कोई नियम नहीं थे। वह आर्थिक रूप से कमजोर एवं व्यवस्थित भी नहीं था। वह शोषण, अन्याय एवं उत्पीड़न का शिकार था। समान राजनैतिक शक्तियों द्वारा भी श्रमिकों का शोषण किया गया। इसलिए इस दुखद स्थिति से उभरने की कोई आशा नहीं थी।

इस अन्याय के विरुध्द अधिकांश श्रमिकों की स्थिति में सुधार के लिए कई लोगों ने आन्दोलन चलाए। उन्होंने अपने आपको साम्यवादी कहा। इनमें कार्ल माक्र्स भी एक थे जिसने अन्याय के विरुध्द बीड़ा उठाया एवं इतिहास का अध्ययन करते हुए विद्यमान ढाँचे एवं स्थिति का विश्लेषण किया। उसने अपनी विचारधारा को वैज्ञानिकी आधार दिया। सभी साम्यवादी माक्र्स से सहमत नहीं थे परन्तु उनके विचारों से प्रभावी अवश्य थे।

श्रीमजीवी वर्ग की तानाशाही

माक्र्स के विश्लेषण - तर्कों के अनुसार शोषण का मुख्य कारण उत्पादन करने वाले निजी मालिक हैं। यदि इन्हें समाज की सम्पत्तिा (माक्र्सवाद के अनुसार राज्य को समाज का समानार्थी) बनाया जाए तब कोई शोषण नहीं होगा। परन्तु इससे पूर्व, राज्य को शोषणकत्तर्ााओं के हाथ से निकलना चाहिए एवं भविष्य में उनके प्रभाव से मुक्त करना सुनिश्चित होना चाहिए। इसके बदले में मजदूर वर्ग की तानाशाही की स्थापना की जानी चाहिए। इस तानाशाही को लोग बर्दाशत कर लेंगे। चूंकि वास्तव में तानाशाह श्रेणी पूर्णरूप से समाप्त हो गई है एवं इसके पुन: उत्थान की संभावना है। राज्य वर्गहीन, राज्यहीन समाज के रूप में परिवर्तित हो जाएँगे। माक्र्स ने इस तथ्य पर भी जोर दिया कि पूंजीवाद में अपने पतन के तत्व समाविष्ट हैं तथा साम्यवाद अनिवार्य है।

यूरोप के कुछ देशों में समाजिक क्रांति आई । जहाँ साम्यवाद को स्वीकार नहीं किया था वहाँ राजनेताओं के अधिकार को स्वीकार कर लिया गया था। ''कल्याणकारी राज्य'' को एक आदर्श के रूप में स्वीकार किया गया था। राष्ट्रवाद, प्रजातंत्र, साम्यवाद, अथवा समानता (समानता, साम्यवाद की जड़ है समानता समान बनाने से भिन्न है।) इन तीन सिध्दान्तों ने यूरोप की सामाजिक, राजनीतिक सोच को प्रभावित किया। इन आदर्शों से विश्व शान्ति एवं विश्व एकता उत्पन्न हुई। ये सभी अच्छे आदर्श हैं। वे मानव सभ्यता को उँचे स्तर की प्रेरणा देते है परन्तु ये सब सिध्दान्त अपने आप में अपूर्ण हैं और न केवल प्रत्येक मुद्दा व्यवहारिक ्ररूप से प्रतिद्वन्द्वता रखता है। राष्ट्रवाद ने विश्व शान्ति को चुनौती दी है। प्रजातंत्र एवं पूंजीवाद के संयुक्त रूप से एक शोषण मुक्त शासन आएगा ऐसी आशा थी।

पूंजीवाद का स्थान समाजवाद ने ले लिया है एवं प्रजातंत्र एवं व्यक्तिगत स्वतन्त्रता आ गई है। इसलिए पश्चिमी राष्ट्र इतने अच्छे आदर्शों को मान्यता प्रदान करने के लिए माहौल पैदा कर रहे हैं। इस दिन तक इस कार्य में उन्हें सफलता नहीं मिली है। उनका प्रयास है कि एक अथवा अन्य आदर्श पर बल देते हुए एक मिला-जुला एवं परिवर्तित माहौल हो। इंग्लैण्ड की राजनीतिक एवं सामाजिक संस्थाओं ने इन आदर्शों के साथ प्रजातंत्र एवं विकास के लिए राष्ट्रवाद को बल दिया है। जबकि फ्रांस ने इसे अंगीकार नहीं किया है जहाँ प्रजातंत्र के परिणामस्वरूप राजनीतिक अस्थिरता आई है। ब्रिटिश लेबर पार्टी चाहती थी कि प्रजातंत्र के साथ-समाजवाद को मान्यता प्रदान की जाए परन्तु लोगों ने संदेह किया कि यदि समाजवाद मजबूत हो जाता है तब क्या प्रजातंत्र जीवित रह पाएगा ? इसलिए लेबर पार्टी ने समाजवाद का समर्थन मजबूती से नहीं किया है। यदि समाजवाद का प्रभाव कम हो गया तब हिटलर एवं मुसोलिनी ने राष्ट्रवाद-सह समाजवाद एवं प्रजातंत्र को अंगीकार किया। अन्त में समाजवाद राष्ट्रवाद के लिए एक ऐसा साधन बन गया जिससे विश्व शांति एवं विश्व एकता को एक चुनौती मिली। हमें पश्चिमी विश्व से कुछ मार्गदर्शी सिध्दांतों का अनुसरण करना चाहिए। वे यह स्वयं ही निर्णय नहीं कर पा रहे कि क्या अच्छा है। इसलिए ऐसी परिस्थितियों में पश्चिम के मार्गदर्शन को स्वीकार नहीं कर सकते। विवाद के रूप में हम विचार कर सकते हैं कि विश्व की वर्तमान स्थिति में हम इसके संकट को दूर करने के लिए क्या अंशदान दे सकते हैं। विश्व की प्रगति को ध्यान में रखते हुए क्या हम ज्ञान के सामान्य भण्डार में कुछ जोड़ सकते हैं? विश्व समुदाय के सदस्य के रूप हमें अनिवार्य रूप से जिम्मेदारी निभानी चाहिए। यदि हम विश्व प्रगति में कुछ भी सहायता कर सके तो हमें इसके लिए विश्व को सहयोग देना चाहिए।

मिश्रितता के इस युग में मिश्रित उपायों के स्थान पर हमें भिन्न जाँच करनी चाहिए एवं इन्हें स्वीकार करने से पहले जहाँ संभव हो सुधार करना चाहिए। विश्व के सम्मुख आ रही समस्याओं के समाधान के लिए, यदि संभव हो, हमें प्रयास करना चाहिए।

हमें इस पर भी विचार करना चाहिए कि विश्व संस्कृति को हमारी परम्परा एवं सभ्यता ने क्या अंशदान दिया है। हम कल शाम को इस पर विचार करेंगे।

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Compiled by Amarjeet Singh, Research Associate & Programme Coordinator, Dr. Syama Prasad Mookerjee Research Foundation, 9, Ashok Road, New Delhi - 110001
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