Lecture - 1st, on April 22nd 1965 Lecture - 2nd, on April 23rd 1965 Lecture - 3rd, on April 24th 1965 Lecture - 4th, on April 25th 1965 Presidential Speech at Calicut in Kerala in
December 1967
अध्याय-1, 23 अप्रैल, 1965
स्वतंत्रता के पश्चात् कल तक हम यह देखते थे कि हमें अपने देशवाशियों के चुँहमुखी विकास के लिए किस दिशा की ओर अग्रसर होना है और इस तथ्य पर हम चिंतन भी करते रहे हैं। सामान्तया इस प्रश्न पर लोग गंभीरता से विचार करने के लिए तैयार नहीं है। वे केवल समय-समय पर सामने आने वाली समस्याओं के संबंध में विचार करते है। कुछ समय के लिए उसके पास आर्थिक समस्याएँ होती है जिनके सुलझाने के लिए वे प्रयास करते हैं एवं अन्य समय में वे समाज अथवा राजनैतिक समस्याओं पर अपना ध्यान केन्द्रित करते है। मौलिक रूप से वे यह नहीं जानते कि उन्हें किस दिशा में प्रयास करने है। ये सभी प्रयास उत्साहवर्धक ढंग से मिल जुलकर नहीं किए जाते और न ही इन प्रयासों से जुड़े लोगों को सन्तुष्टि प्रदान होती है।
आधुनिक बनाम प्राचीन
वे जो कुछ परिभाषित दिशा की वकालत करते हैं उन्हे दो भिन्न समूहों में शामिल किया गया है। इनमें से कुछ का सुझाव है कि हमें उस स्थिति में वापिस चला जाना चाहिए जो हमने स्वतंत्रता से पूर्ण छोड़ी थी। दूसरी ओर ऐसे लोग है जो कि इन सभी का खंडन करते है और इस संवंध में किसी पर भी विचार करने के लिए तैयार नहीं हैं। वे सोचते है कि प्रगति का अंतिम शब्द पश्चिम राष्ट्रों का जीवन एव उनकी विचारधाारा है जिसे विकास के लिए हमें अपनाना चाहिए। ये दोनों विचारधाराएँ गलत है एवं आंशिक सत्य का प्रतिनिधित्व करती है परन्तु यह भी हमारे लिए उचित नहीं होगा कि हम इन्हे निकाल दें। वे लोग जो हजारों वर्षों पूर्व छोडे ग़ए समय की वकालत करते हैं वे यह भूल जाते है कि यह वांछनीय हो अथवा न हो परन्तु निश्चित रूप से यह असंभंव है। समय की प्रवृति को वापिस नहीं लाया जा सकता है।
भूतकाल की उपेक्षा नहीं की जा सकती
पूर्व के लिए हजारों वर्षों में हमने जो अपनाया क्या यह हम पर दवाब था ? हम अब इसे इच्छानुसार अस्वीकार कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त हम वास्तविकता का अहसास थोडे समय के लिए के लिए नहीं कर सकते है। हम अपने जीवन में सदैव कर्मप्रधान नहीं रह सकते है चाहे हमारे लिए कितनी ही नई चुनौतियों की स्थिति क्यों न हों। हमें अपने जीवन के पुन: निर्माण के लिए नई स्थितियों की आवश्यकता के अनुसार प्रयास करना है। इसलिए हमें अपनी ऑंखों पर यह परदा नहीं डालना होगा कि यह एक हजार वर्षों पहले घटित हुआ है।
विदेशी विचारधाराएं सर्वव्यापक नहीं है
सामान्तया जो लोग हमारी प्रगति का आधार पश्चिम की विचारधाराओं को बनाना पसंद करते है, वे भूल जाते हैं की ये सभी विचार धाराएँ कुछ विशेष स्थितियों में एवं नियत समय में ही उभरी हैं। ये अनिवार्य रूप से सर्वव्यापी नहीं हैं। वे इस विशेष लोगों की सीमाओं से मुक्त नहीं हो सकती हैं एवं उनकी संस्कृति इन वादों को जन्म देती हैं। इसके अतिरिक्त इनके कुछ उपाय पहले ही पुराने हो गये हैं। माक्र्स के कुछ सिध्दान्त बदलते हुए परिवेश के साथ-साथ विविध स्थितियों के अनुरूप बदल गए हैं। हमारे देश के सम्मुख समस्याओं के लिए मार्क्सवाद की याचिका वैज्ञानिक एवं व्यावहारिक दृष्टिकोण की प्रतिक्रिया के बराबर होगी। यह हैरानी की बात है कि जो मृतक परम्पराओं को हटाने के द्वारा समाज में सुधार लाना चाहते हैं वे अपने आपको कुछ पुरानी विदेशी परम्पराओं में झोंकना चाहते हैं।
हमारा देश: हमारी समस्याएँ
प्रत्येक देश की अपनी ऐतिहासिक, सामाजिक तथा आर्थिक स्थिति होती है एवं देश के नेता समय-समय पर इसकी पृष्ठभूमि पर विचार करते हुए लोगों की समस्याओं के निराकरण के संबंध में निर्णय लेते हैं। यह तथ्यपरक कथन है कि हमारे देश के नेताओं द्वारा लोगों की समस्याओं को दूर करने के लिए किए गए निराकरण सभी पर लागू होते हैं। यह आसान उदाहरण सभी के लिए पर्याप्त होगा जबकि सभी मानवों में समान रूप से जैविक आधार की गतिविधि पाई जाती है तथा एक दवाई यदि इग्लैंड में सहायक हो सकती है तो यह अनिवार्य नहीं है की भारत में भी सहायक हो। बीमारियाँ मौसम, पानी, खाने, की आदतों एवं आनुवंशिकता पर निर्भर करती है। हालाकि आन्तरिक लक्षण स्पष्ट रूप से समान हो सकते है फिर भी यह आवश्यक नहीं है कि समान दवाई सभी व्यक्तियों को रोग मुक्त करें। वे व्यक्ति जिन्होंने सभी दवाईयों के लिए शोधन-कार्य किया है वे डॉक्टरों की अपेक्षा में इलाज के लिए नीम-हकीम कहे जा सकते हैं। इसलिए आयुर्वेद में कहा गया है कि प्रत्येक स्थान पर बीमारी के इलाज के लिए एक उचित स्थान की तलाश की जानी चाहिए। इसलिए यह सम्भव और न ही हितकारी होगा कि हमारे देश में मूल रूप में विदेशी वादों को अंगीकार किया जाए। यह हमारी खुशियां एवं समृध्दियों को प्राप्त करने में भी सहायक नहीं होगा।
मानवीय ज्ञान एक सामान्य परिसंपत्ति है
दूसरी ओर यह आवश्यक नहीं है कि अन्यत्र रूप में फैले सभी विचार एवं सिध्दान्त स्थान एवं समय के अनुरुप स्थानीय हो। किसी भी विशेष स्थान-समय एवं सामाजिक वातावरण में मानव का प्रत्युत्तर कई मामलों के परस्पर संबंध रखता है एवं अन्य समयों पर अन्यत्र रूप से अन्य मानव द्वारा प्रयोग किया जाता है। इसलिए अन्य समाजों के भूत अथवा वर्तमान में किए गए विकास से अपेक्षा रखना ठीक नहीं है। सत्य जो भी हो इन विकासों के अन्तर्विष्ट को स्वीकार नहीं करना चाहिए एवं शेष को ईमानदारी से उपेक्षित करना चाहिए। अन्य समाज के विवेक का समावेश करते हुए यह उचित होगा कि हम उनकी गलतियों अथवा विकृतियों पर ध्यान न दे। उनके विवेक को हमें विशेष परिस्थितियों में अंगीकार किया जाना चाहिए। संक्षिप्त रूप में हमें उनके पूरे समाज के ज्ञान, प्राप्तियाँ, आन्तरिक सिध्दान्तों एवं सत्य को अंगीकार करना चाहिए।
परस्पर विरोधी विचार
पश्चिमी राजनैतिक विचारधारा ने आदर्शों के रूप में राष्ट्रवाद, प्रजातंत्र एवं समाजवाद और समानता को स्वीकार किया है। इसके अतिरिक्त विश्व एकता के लिए ''लीग ऑफ नेशन्स'' एवं द्वितीय विश्व युध्द के पश्चात ''यूनाईटेड नेशन्स ऑर्गनाइजेशन'' की स्थापना के प्रयास किए गए। इनके सफल न होने के कई कारण है तथापि इनके लिए निश्चित रूप से प्रयास किए गए थे।
सभी ये आदर्श व्यवहारिक रूप में अपूर्ण एवं परस्पर विरोधी सिध्द हुए।
राष्ट्रवाद राष्ट्रों के बीच परस्पर विरोध को जन्म देता है एवं विश्व विरोध की ओर परिवर्तित करता है। विश्व शांति के लिए समानता की भावना आवश्यक है और छोटे राष्ट्रों स्वतंत्रता के लिए आवश्यक रूप से प्रोत्साहित करना इसी भवना का मूलयंत्र है। विश्व एकता एवं राष्ट्रवाद परस्पर एक दूसरे के विरोधी है। कुछ लोग विश्व एकता के लिए राष्ट्रवाद को कुचलने की वकालत करते हैं।
समाजवाद एवं प्रजातंत्र में समान समस्याएं उत्पन्न होती है। प्रजातंत्र व्यक्तिगत स्वतन्त्रता प्रदान करता है जबकि इसका प्रयोग पूंजीवादी पध्दति में शोषण एवं एकाधिकार के लिए होता है। समाजवाद में शोषण को समाप्त किया गया परन्तु इसने व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को नष्ट किया।
आज मानवता सन्देह के चौराहे पर खड़ी है एवं भविष्य की प्रगति के लिए सही रास्ते के निर्णय को लेने के असमर्थ है। पश्चिम विश्वास के साथ कहने की स्थिति में नहीं है कि उसके पास एक सही रास्ता है। वह अपने आप ही रास्तों की तलाश में है। इसलिए सामान्य ढंग से यह कहा जा सकता है कि पश्चिम का अनुसरण इस तरह का है कि एक नेत्रहीन व्यक्ति द्वारा दूसरे नेत्रहीन व्यक्ति को राह दिखाना । इस स्थिति में हमारा ध्यान भारतीय संस्कृति की ओर जाना स्वाभाविक है जहाँ हमारी संस्कृति विश्व को दिशा निर्देश प्रदान कर सकती है।
राष्ट्रीय मंचों पर भी हमें अपनी संस्कृति पर ही विचार करना होगा क्योंकि हमारी संस्कृति प्राकृतिक है। स्वतंत्रता घनिष्ट रूप से संस्कृति से संबंधित होती है। यदि संस्कृति का आधार स्वतंत्रता नहीं होता है तब स्वतंत्रता के राजनैतिक आन्दोलन स्वार्थों में लीन हो जाऐंगे और सत्ता के इच्छुक लोगों के लिए स्वतंत्रता का अर्थ तब सार्थक होगा जब यह आन्दोलन केवल हमारी संस्कृति का प्रकटीकरण करेंगे। ऐसी प्रकटीकरण न केवल हमारी प्रगति में सहायक होंगे अपितु हमारी प्रसन्नता के बोधक होंगे। इसलिए राष्ट्रीय एवं मानव मुद्दे से यह अनिवार्य हो गया है कि हम भारतीय संस्कृति के सिध्दान्तों के संबंध में सोच करें। यदि ये हमारी सहायता करने में सहायक होता है तब हम पश्चिम राजनैतिक चिंतन के विभिन्न आदर्शों को मान्यता प्रदान कर सकते हैं जो कि हमारे लिए अतिरिक्त रूप में लाभकारी होगा। ये पश्चिमी सिध्दान्त मानव सोच में क्रांति को उत्पन्न करते हैं एवं सामाजिक रूप में परस्पर विरोधी है। वे मानवता के साथ व्यक्तिगत महत्वकांक्षाओं का प्रतिनिधि करते हैं अत: यह उचित नहीं है कि इनकी उपेक्षा की जाए।
भारतीय संस्कृति एकात्म है
भारतीय संस्कृति का पहला लक्षण यह है कि वे पूरे जीवन को एकात्म रूप में देखते हैं। यह एक अंतरंग विचारणीय मुद्दा है। विशेषज्ञों के लिए इसकी सोच उचित हो सकती है परन्तु व्यावहारिक मुद्दे से यह प्रयोगात्मक नहीं है। पश्चिम में प्रमुख रूप में समूहों में जीवन की सोच की प्रवृति में एवं कार्यों में एक दूसरे के साथ के लिए किए जाने वाले प्रयासों में भ्रान्तियाँ है। हम स्वीकार करते है कि जीवन में विविधताएँ हैं परन्तु हम सदैव एकता की खोज प्रमुखता से करते हैं। यह प्रयास पूर्णतया वैज्ञानिक होता है। वैज्ञानिक सदैव विश्व में प्रत्यक्ष अव्यवस्था से संबंधित खोज कार्य, विश्व में शासित सिध्दान्तों का पता लगाना एवं इन सिध्दान्तों पर आधारित व्यावहारिक नियमों की ढाँचें का निर्माण के संबंध में खोज करते हैं। रसायनज्ञों ने खोज की है कि कुछ तत्व पूरे भौतिक विश्व में समाविष्ट होते है। भौतिक शास्त्र ने एक कदम इससे आगे बढ़ाकर पाया है कि केवल इन तत्वों में ही ऊर्जा समाविष्ट होती है। आज हम जानते है कि पूरे विश्व केवल ऊर्जा का ही एक रूप है। दार्शनिक मुख्य रूप से वैज्ञानिक होते हैं। पश्चिमी दार्शनिकों ने द्वैत के सिध्दान्त की युक्ति, हेगल ने शोध, प्रतिपक्ष शोध और संश्लेषण एवं कार्ल मार्क्स ने इन सिध्दान्तों का प्रयोग इतिहास एवं अर्थशास्त्र के अपने विश्लेषण पर आधार के रूप में प्रस्तुत किया है। परन्तु हमारे देश में हम जीवन में मुख्य रूप में एकता को देखते हैं। हालांकि द्वैताओं के विशेषज्ञों का विश्वास है कि प्रकृति एवं आत्मा एक दूसरे के परस्पर विरोधी होने की अपेक्षा पूरक होनी चाहिए। जीवन में विविधता आन्तरिक एकता का ही शोधक है। हम बीज की एक ईकाई को इस प्रकार प्रकट कर सकते हैं-जड़, तना, पत्तों की शाखाएं, फूल और पेड़ों के फल। ये सभी विभिन्न रूप एवं रंगों में होते है परन्तु तब भी हम इनमें एकता की स्पष्ट रूप में झलक दिखाई देती है।
पारस्परिक विरोधी -संस्कृति पतन का प्रतीक
भारतीय संस्कृति की प्रमुख विचारधारा में विभिन्न रूपों में विविधता में एकता एवं एकता की अभिव्यक्ति पाई जाती है। यदि इस सत्य को सर्वत्र रूप में स्वीकार कर लिया जाता है तो विभिन्न सत्तााओं के बीच परस्पर विरोध का कोई कारण नहीं होना चाहिए। परस्पर संघर्ष संस्कृति का संकेत नहीं है अपितु उनकी गिरावट का प्रतीक है। जंगल का कानून ''जीवित रहने के लिए उपयुक्त'' हो सकता है जिसकी हाल ही के वर्षों में खोज की है। इसकी जानकारी हमारे दार्शनिकों को भी है। हम मानव स्वभाव की छ: न्यूनतम प्रवृतियों जैसे इच्छा एवं कोध्र इत्यादि को मान्यता देते है। परन्तु हम इनकों अपनी संस्कृति अथवा सभ्य जीवन का आधार नहीं मानते है हमारे समाज में चोर एवं लुटेरें भी है। यह अनिवार्य है कि हम अपने समाज को इन तत्वों से दूर रखे। हम उन्हें अपने आदर्श एवं मानव चरित्र का स्तर नहीं मान सकते है। ''जीवित रहने के लिए उपयुक्त'' एक जंगल के कानून के आधार पर हमने विकास नहीं किया है। परन्तु विचारणीय यह है कि इस नियम का प्रचालन मानव जीवन में कम कैसे होगा। यदि हम विकास के इच्छुक है तब हमें सभ्यता का इतिहास अपने चिंतन में रखना होगा।
परस्पर सहयोग
पूरे विश्व में सहयोग बाहुल्य रूप में संघर्ष एवं मुकाबले के रूप में पाया जाता है। वनस्पति एवं पशु जीवन एक दूसरे को जीवित रखते हैं। हम वनस्पति जीवन की सहायता से आक्सीजन की आपूर्ति प्राप्त करते हैं जिससे हम पशुपालन के विकास के लिए अनिवार्य कार्बन-डाई-आक्साइड उन्हें मुहैया करते हैं। यह इस भूमण्डल में परस्पर सहयोग का जीता-जागता उदाहरण है।
जीवन के विभिन्न रूपों के बीच विद्यमान परस्पर आहार का आदान-प्रदान इस तत्व की मान्यता का आधार है जो मानव जीवन को परस्पर लाने का प्रयास है और यही मानव-सभ्यता का प्रमुख लक्षण है। सामाजिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए प्रकृति को मोड़ना संस्कृति है परन्तु जब यह प्रकृति सामाजिक संघर्षों को जन्म देती है तब यह हानिकारक है। संस्कृति सम्मान अथवा प्रकृति की उपेक्षा के लिए नहीं है। बल्कि यह प्रकृति के उन तत्वों में बढ़ोतरी करती है जो कि विश्व में जीवन को अधिक सम्पन्न एवं नियंत्रित बनाते हैं। आइए एक आसान उदाहरण लेते है। भाई, बहन, माता एवं पुत्र, पिता एवं पुत्र के रिश्ते प्राकृतिक हैं। ये मानव एवं पशुओं में समान रूप से पाये जाते हैं। जिस प्रकार दो भाई बेटे हैं एक माँ के, उसी प्रकार दो बछडे है एक गाय माँ के। फिर उनमें अन्तर क्या है? पशुओं में स्मृति की कमी होने से सम्बन्धों की अवधि कम होती है। वे इन सम्बन्धों पर सभ्यता की नींव नही रख सकते है। परन्तु मनुष्य इस प्राकृतिक संबंध का प्रयोग जीवन में सुव्यवस्था के निर्माण के लिए तथा इन मुख्य संबंधों से अन्य संबंधों में प्रवाह स्थापित करने के लिए करता है जिससे पूरा समाज सहयोग की एक इकाई बन सकें। तथापि विभिन्न मूल्य तथा परम्पराएं निर्मित की गई है। तदनुसार अच्छे एवं बुरे मानकों का निर्माण किया गया है। समाज में हम 'भाईयों के बीच प्यार एवं दुश्मनी के उदाहरण पाते हैं। परन्तु हम प्यार को अच्छा समझते है एवं भाईचारे को बढ़ावा देते है। जबकि विपरीत प्रवृति को अनुमोदित नहीं किया गया है। यदि विरोध तथा दुश्मनी मानव सम्बन्धों के आधार पर की जाए तब यह विश्व शांति के सपने को चकनाचूर ही तो करेगा।
एक माँ अपने बच्चे को जन्म देती है। माँ के प्यार को एक उच्च कोटि के प्यार का दर्जा दिया गया है। इसी अकेले आधार पर हम कह सकते हैं कि मानव का जीवन दुर्लभ है। कभी-कभी अपने बच्चे के प्रति माँ के स्वार्थ एवं क्रूरता के उदाहरण मिलते है। पशुओं की कुछ प्रजातियों में भूख की सन्तुष्टि के अपनी सन्तान को निगल जाने के उदाहरण पाये जाते है। दूसरी ओर बन्दरों की माँ अपने बच्चे की मृत्यु के बाद भी उसे छाती से लगाए रखती है। दोनों प्रकार के व्यवहार जीवित प्राणियों में पाए जाते हैं। जिनमें से प्रकृति के दोनों सिध्दान्त सभ्य जीवन के आधार पर बनाए जा सकते हैं। हम अकेले इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते है कि जीवन को संवारने के लिए कौन हमारी सहायता करेगा तथा यह भ्रान्ति सभ्य जीवन की ओर नहीं ले जा सकती है। मानव प्रकृति के दो स्वभाव क्रोध एवं लालच एक हाथ में तथा दूसरे हाथ में प्यार व त्याग रखता है। यह सभी हमारी प्रकृति में विधमान होते है। क्रोध इत्यादि मानव एवं हिसक पशुओं में भी पाए जाते है। इसके कारणों मे यदि हम अपने जीवन में क्रोध करते है जीवन तब परिणामस्वरूप हमारे जीवन में मैत्री कम होगी इस स्थिति में हमें क्रोध नहीं करना चाहिए। यदि कभी हमें क्रोध आता भी है तो हमें उस पर नियन्त्रण करना चाहिए इससे हमारे जीवन का स्तर नियन्त्रित हो सकता है।
ऐसे नियम नीतिशास्त्र के सिध्दान्तों के रूप में जाने जाते है। इन सिध्दान्तों को किसी भी व्यक्ति द्वारा स्वरूप प्रदान नहीं किया गया है। इसके समुचित सामान्तर तथ्य गुरूत्वाकर्षण का नियम है। जिसमें हम यदि एक पत्थर को ऊपर की ओर फेंके तो जमीन पर आकर गिरेगा। इस गुरूत्वाकर्षण के नियम को न्यूटन द्वारा स्वरूप प्रदान नही किया गया है हालॉकि उसने इसकी खोज की है। जब उसने वृक्ष की शाखा से सेब को नीचे जमीन पर गिरते हुए देखा तब उसने महसूस किया की ऐसा नियम विधमान होना चाहिए इसलिए उसने इस नियम की खोज की परन्तु उसने इसे स्वरूप नही दिया। सामान्य रूप में मानव सम्बन्धों से सम्बन्धित कुछ ऐसे सिध्दान्त हैं उदाहरण के लिए यदि कोई गुस्सा करता है और उस पर नियन्त्रण कर लेता है तब पूरे मानव जाति को इसका लाभ मिलेगा। नीति शास्त्र में इन सिध्दान्तों की खोज कर ली गई है।
किसी से भी झूठ न बोले एवं सत्य को जानें। यह एक सिध्दान्त है। यह जीवन के प्रत्येक कदम पर स्पष्ट रूप से उपयोगी है। हम सच्चे व्यक्ति की प्रशंसा करे। यदि हम झूठ बोलते है तब हम अप्रसन्नता महसूस करते है जिससे जीवन अवरूध्द हो जाएगा एक बड़ी भ्रांति पैदा हो जाएगी।