Lecture - 1st, on April 22nd 1965 Lecture - 2nd, on April 23rd 1965 Lecture - 3rd, on April 24th 1965 Lecture - 4th, on April 25th 1965 Presidential Speech at Calicut in Kerala in
December 1967
अध्याय-1, 23 अप्रैल, 1965
आधुनिक बनाम प्राचीन
ये सिध्दान्त हमारे धर्म में संगठित है कि एक बच्चा प्रकृति के अनुसार झूठ नहीं बोल सकता है। अक्सर अभिभावक अपने बच्चों को झूठ बोलना सिखाते हैं। जब बच्चा किसी भी चीज की मांग करता है और यदि अभिभावक उसे नहीं देना चाहते है तो वे वस्तु को छुपा देते हैं एवं बच्चे से कहते है कि वस्तु गुम हो गयी है। बच्चा कुछ समय के लिए मूर्ख बन सकता है परन्तु जब वह वास्तविकता को समझ लेता है तब वह झूठ बोलना सीख जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि मनुष्य प्राकृतिक रूप से सत्यवादी होता है जो कि एक नियम है जिसकी खोज हो चुकी है। नीतिशास्त्र के कुछ ऐसे सामान्य सिध्दान्तों की भी खोज की गई। इन सिध्दान्तों को किसी भी व्यक्ति द्वारा स्वरूप प्रदान नहीं किया गया है। भारत में यह सिध्दान्त जीवन के नियम ''धर्म'' के रूप में जाने जाते हैं। वे सभी सिध्दान्त मानव जीवन में मैत्री, शांति एवं प्रगति लाते हैं। इसे ''धर्म'' में शामिल किया गया है। ''धर्म'' के मजबूत आधार में हमें अन्तर्गत रूप से जीवन का विश्लेषण करना चाहिए।
जब प्रकृति धर्म के सिध्दान्तों के अनुसार चलेगी तब तक हमारे पास संस्कृति एवं सभ्यता रहेगी। इस संस्कृति से हमें मानव जीवन में उत्कृष्टता मिलती रहेगी। यहाँ ''धर्म'' का अनुवाद नियम के रूप में किया गया है। ''धर्म'' के लिए अंग्रेजी शब्द ''रिलीजन'' यहाँ ठीक नहीं है।
जैसा कि पूर्व में ही उल्लेख किया गया है कि अंतरंग जीवन का अभिप्राय इस संस्कृति के अंतर्गत आधार एवं सिध्दान्त के साथ-साथ इसके उद्देश्य एवं आदर्शों की रूपरेखा है।
हमारी यह सोच है कि अंतरंग जीवन न केवल सामूहिक अथवा सामाजिक जीवन के रूप में ही पाया जाता है अपितु व्यक्तिगत जीवन में भी विद्यमान होता है।
शारीरिक रूप में स्वास्थ्य एवं सुख-साधनों को खुशियाँ बटोरने वाले की संज्ञा दी गई है। परन्तु हम जानते है कि दिमागी रूप से चिन्ताग्रस्त शरीर स्वस्थ नहीं है। इसलिए सब चाहते है कि शारीरिक रूप से स्वस्थ रहा जाए। परन्तु यदि कोई व्यक्ति अपराधी है और उसे अच्छा खाना इत्यादि दिया जाए तो क्या वह खुश होगा? एक व्यक्ति कभी-भी अच्छे खाने का स्वाद नहीं ले सकता यदि उसके साथ दुर्व्यवहार किया गया है। इस संबंधा में महाभारत में एक प्रसिध्द घटना का जिक्र है जब भगवान कृष्ण हस्तिनापुर पाँडवों के दूत बनकर गये। तब दुर्याधन ने उन्हें आतिथ्य-सत्कार के लिए आमंत्रित किया परन्तु उन्होंने इसे अस्वीकार किया और इसके स्थान पर विदुर के घर गये। इस विशिष्ट मेहमान के आगमन से आनन्दमयी विदुर की पत्नी ने जब केले का छिलका उतार कर गूदे को फेंक दिया और छिलकों को परोस दिया तब भगवान कृष्ण ने केले के छिलके के खाने का आनन्द उठाया। इसलिए यह कहा गया है कि प्यार एवं मान-मर्यादा से परोसा गया खाने का आनन्द अपमान के साथ परोसे गए बेहतरीन व्यंजनों से बहुत अधिक है। इसलिए यह आवश्यक है कि इस प्रकार के सुख-आराम के साधनों का उपयोग न किया जाए।
इसी प्रकार के बौध्दिक सुख साधन हैं जिन पर विचार किया जाना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति शारीरिक रूप से स्वस्थ है और उसे महत्ता एवं प्यार प्राप्त है तब वह प्रसन्नचित होगा और यदि वह किसी भी बौध्दिक भ्रान्ति से त्रस्त है तब उसकी स्थिति पागल के समान है एवं तब इसकी पागलपन की क्या सीमा होगी? इस प्रकार का व्यक्ति बौध्दिक सुख-साधनों का लाभ नहीं उठा सकता है। इसलिए बौध्दिक शान्ति एक अनिवार्य एवं महत्वपूर्ण घटक है। अत: हमें सभी चीजों पर विचार करना होगा।
राजनीति प्ररेणास्रोत व्यक्तित्व
चार तत्व शरीर, दिमाग, बुध्दि एवं आत्मा एक व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं। परन्तु ये सभी एकात्म हैं। हम प्रत्येक भाग को अलग रखने के संबंध में सोच नहीं सकते हैं। पश्चिम में यह भ्रान्ति उभर कर आई है कि वे उपरोक्त मानवीय पहलुओं को अलग से समझते हैं एवं इसका आपस में कोई संबंध नहीं है। जब पश्चिम में प्रजातंत्र के ढाँचे के लिए आन्दोलन हुआ तब उन्होंने दावा किया कि ''मनुष्य एक राजनैतिक पशु है'' इसलिए उसे राजनैतिक प्ररेणा अनिवार्य रूप से लेनी चाहिए। फिर क्यों एक व्यक्ति राजा होना चाहिए दूसरा उसकी प्रजा? प्रत्येक व्यक्ति को राज करना चाहिए। इस राजनैतिक व्यक्ति को संतुष्ट करने के लिए उन्होंने इसे कोई वोट डालने का अधिकार दिया। अब वह वोट डालने के अधिकार का प्रयोग करता है परन्तु समान समय में उसके अन्य अधिकार कुचल दिए गए हैं। तब प्रश्न यह उठता है कि वोट डालने का अधिकार तो अच्छा है परन्तु उसके खाने के अधिकार का क्या होगा? तब क्या होगा जब उसके पास खाने को कुछ नहीं है? उन्हें आश्चर्य है कि ''अब आपको वोट देने का अधिकार है, आप राजा हैं फिर घबराने की क्या आवश्यकता है?'' परन्तु उस व्यक्ति का जवाब है कि ''यदि मेरे पास खाने को नहीं है तो मैं राज्य का क्या करुँगा? मेरे लिए वोट देने का कोई अर्थ नहीं है। मैं पहले खाना चाहता हूँ।'' तत्पश्चात, कार्ल माक्र्स आए और कहा, ''हाँ खाना एक महत्वपूर्ण वस्तु है। राज्य का संबंध ''रखने'' से है। इसलिए आइए खाने के लिए संघर्ष करें। उसने देखा कि मुख्य रूप से शरीर को खाना चाहिए परन्तु जो कार्ल-माक्र्स के सिध्दान्त का अनुसरण करते थे उनका कहना था कि उन्हें न खाना चाहिए न ही वोट देने का अधिकार।
इसके विपरित स्थिति संयुक्त राज्य अमेरिका में है जहां पर खाने के साथ-साथ वोट देने का भी अधिकार है। परन्तु शान्ति एवं खुशियों की कमी है। संयुक्त राज्य अमेरिका में बहुत बड़ी संख्या में लोग आत्महत्या करते हैं और दिमाग के रोगी हैं और सो नहीं पाते हैं। लोग इस नई स्थिति के कारण दुविधा में है। व्यक्ति ने खाने एवं वोट देने का अधिकार पा लिया है परन्तु उनके जीवन में कोई शांति एवं खुशी नहीं है। अब वे शांतिपूर्वक सोना चाहते हैं। अमेरिका में इन दिनों शोर एवं शांति एक दुर्लभ वस्तु है। वे समझते है कि कहीं न कहीं पर मूल भ्रान्तियाँ है क्योंकि उनके पास जीवन की अच्छी वस्तुएँ उपलब्ध है फिर भी वे खुश नहीं हैं।
इसका कारण उनके पास अंतरंग मानव समाज की सोच नहीं है। हमारे देश में इस मामले में गम्भीरतापूर्वक विचार हुआ है। इसलिए हम कहते हैं कि मनुष्य की प्रगति का अर्थ एक साथ उसके शरीर, दिमाग, बुध्दि एवं आत्मा की प्रगति है।
अक्सर यह प्रचार किया गया है कि भारतीय संस्कृति केवल आत्मा की मुक्ति के संबंध में सोच रखती है। और शेष के संबंधा में ध्यान नहीं देती है यह गलत है। यह भी सत्य नहीं है कि हम शरीर, दिमाग एवं बुध्दि को अधिक महत्व देते हैं। जबकि अन्य केवल शरीर को महत्व देते हैं इसलिए हम अद्वितीय आत्मा की ओर अपना ध्यान आकर्षित करते हैं। यह इस बात का सृजन करता है कि हम केवल आत्मा से संबंध रखते हैं और हमारा अन्य जीवन के पहलुओं से कोई लेना देना नहीं है। एक अविवाहित लड़का अपनी माँ का ध्यान रखता है। परन्तु शादी के पश्चात् वह अपनी पत्नी एवं माँ दोनों का ध्यान रखता है और दोनों के लिए जिम्मेदारी निभाता है। यदि अब कोई कहे इस व्यक्ति को अब अपनी माँ से प्यार नहीं रहा तो यह सत्य नहीं होगा। इसी प्रकार पहले पत्नी केवल पति को प्यार करती है परन्तु बच्चे के जन्म के बाद वह अपने पति एवं बच्चे दोनों को प्यार करती है। कभी-कभी पति को प्रतीत होता है कि बच्चे के जन्म के बाद उसकी पत्नी उसका ध्यान नहीं रखती है जो कि सामान्य रूप में ठीक नहीं है। जहां यह सत्य है वहाँ पत्नी अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाती है।
इसी प्रकार जब हम आत्मा की ओर ध्यान देने की आवश्यकता को मान्यता देते है तब हम शरीर की उपेक्षा नहीं कर सकते हैं। उपनिषद में सुस्पष्ट शब्दों में घोषणा की गई है कि दुर्बल व्यक्ति स्वयं के बारे में भी अनुभव नहीं कर सकता है। शरीर जिम्मेदारियों को निभाने का एक प्रमुख साधन है। हमारी एवं पश्चिम की स्थिति के बीच मुख्य अंतर यह है कि वे इच्छाओं की पूर्ति की संतुष्टि के लिए शरीर को महत्व देते है जबकि हम अपने अपने उद्देश्यों के लिए शरीर का प्रयोग एक साधन के रूप में करते हैं। हमने इस संबंध में केवल शरीर को ही मान्यता प्रदान की है। हमारे शरीर की आवश्यकताओं की संतुष्टि अनिवार्य है। भारत में हम अपने सम्मुख मानव के अंतरंग विकास के लिए चार आदर्श अर्थात शरीर, दिमाग, बुध्दि एवं आत्मा को पाते हैं एवं धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष मानव के प्रयासों के चार प्रकार हैं। पुरुषार्थ का अर्थ प्रयास होता है जिससे मनुष्य सही पथ पर चलता है। मनुष्य में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष जन्म से ही पाए जाते हैं। हाँलाकि इन पुरुषार्थ में मोक्ष को उच्च स्थान दिया गया है परन्तु अकेले मोक्ष के लिए किए गए प्रयास पर्याप्त नहीं हैं। दूसरी ओर एक व्यक्ति जो कि धर्म में व्यस्त है तब वह इसके फल से दूर कैसे रह सकता है एवं उसे अनिवार्य रूप में मोक्ष मिलता ही चाहिए।
अर्थ में राजनीतिक एवं आर्थिक नीतियां शामिल होती है। इतिहास साक्षी है कि इसका प्रयोग न्याय एवं दण्ड देने में भी किया जाता था। काम का संबंध विभिन्न प्रकृति की इच्छाओं की संतुष्टि से हैं। ''धर्म'' में कहा गया है कि नियम द्वारा सामाजिक गतिविधि का नियमन किया जाता है। इसलिए अर्थ एवं काम अन्तरंग एवं मैत्रीपूर्ण ढंग में प्रगति करते हैं।
जबकि धर्म अर्थ एवं काम का नियमन करता है और ये तीनों एक दूसरे के परस्पर पूरक है। धर्म, अर्थ को प्राप्त करने में सहायक है जबकि व्यापार में भी धर्म के रुप में ईमानदारी, नियन्त्रण एवं सच्चाई इत्यादि की आवश्यकता होती है। इन योग्यताओं के अभाव में कोई भी व्यक्ति धन प्राप्त नहीं कर सकता है। अत: यह कहना युक्तिपूर्ण होगा कि अर्थ और काम को प्राप्त करने का साधन धर्म है। अमरीका के निवासियों ने दावा किया है कि ''ईमानदारी एक बेहतर व्यापार नीति'' है। यूरोप में कहा गया है कि ''ईमानदारी सर्वोत्ताम गुण है''।
हम एक कदम आगे जाने पर पाते हैं कि ''ईमानदारी एक नीति नहीं है परन्तु एक सिध्दान्त है''। अर्थात् हम धर्म में विश्वास करते हैं क्योंकि यह अर्थ अर्जन करने का एक साधन है और सभ्य मानव जीवन में एक मौलिक सिध्दान्त है। काम को केवल धर्म के माध्यम से ही प्राप्त किया जा सकता है क्योंकि केवल धर्म द्वारा ही उसके प्रयोग के आधार पर उत्पादन करने वाली वस्तुएँ जैसे अच्छा खाना, कब, कहाँ, कैसे का निर्धारण किया जाता है। यदि कोई बीमार व्यक्ति स्वास्थ्यवर्धक खाना खा लेता है एवं यदि कोई स्वस्थ व्यक्ति, बीमार व्यक्ति का खाना खा लेता है तो यह अधिक लाभकारी नहीं होगा। धर्म मानव की स्वाभाविक प्रवृति में नियंत्रण में सहायता करती है जिससे वह निर्धारण करने में सफल होता है क्या उसके लिए लाभकारी एवं आनन्दमयी है इसलिए धर्म को संस्कृति का अभिन्न अंग कहा गया है।
धर्म प्राथमिक महत्व रखता है। परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अर्थ की अनुपस्थिति में धर्म कार्य नहीं कर सकता है। इसलिए कहा गया है कि ''जो व्यक्ति भूखा है वह कोई भी पाप कर सकता है?'' एवं ''जिसने सब कुछ खो दिया है उससे बड़ा कोई बेशर्म नहीं है''। जबकि विश्वामित्र ऋषि ने भूख की तड़प को रोकने के लिए शिकारी के घर पर कुत्तो का मांस खाया। इसलिए हम देखते हैं कि निरन्तर रूप में धन ने धर्म को मजबूत किया है। सामान्य रूप से सरकार ने कानून एवं व्यवस्था और दुर्व्यवहार था उसको रोकने में भूमिका निभाई है। दुर्व्यवस्था के कारण जंगल का कानून बन जाता है और जब कमजोर व्यक्ति पर मजबूत व्यक्ति हावी होता है। इसलिए राज्य की स्थिरता धर्म के प्रसार के लिए भी अनिवार्य है।
अत: इस प्रकार शिक्षा, चरित्र निर्माण, आदर्शवाद का प्रसार एवं उचित आर्थिक ढाँचा सभी आवश्यक तत्व हैं। सरकारें भी अर्थ के कारण गिरती है। राज्यों को अधिक शक्तियाँ भी धर्म के लिए हानिकारक है। इसलिए यह कहा गया था कि राजा को लोगों के साथ न तो अधिक कठोर और नही लचीला होना चाहिए।
जब राज्य में धर्म की स्थिति छिन्न-भिन्न होगी तब राज्य में बुराईयाँ व्यापक रूप में फैलेगी और धर्म में गिरावट आ जाएगी। यही कारण है कि राज्यों में धर्म में गिरावट देखी गई है।
जब किसी राज्य को राजनैतिक एवं आर्थिक दोनों सहित लगभग सभी शक्तियाँ प्राप्त हो जाती है तब परिणामस्वरूप धर्म में गिरावट होती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जब किसी राज्य को असीमित शक्तियाँ प्राप्त होती है तब पूरा समाज उस राज्य से सभी प्रकार की सहायता की अपेक्षा करता है। सरकार के अधिकारी अपनीर् कत्ताव्य के प्रति लापरवाह हो जाते हैं एवं निहित स्वार्थों में संलग्न हो जाते हैं। ये सभी संकेत हमें बहु-शक्ति प्राप्त राज्य में मिलते हैं। धर्म में दण्ड एक अभिशाप के समान है। हालाकि अर्थ में इन दोंनो तरीकों में अर्जन की अनुमति प्रदान नहीं की जानी चाहिए।
कर्म के लिए समान नीतियों के अनुरुप ही विचार किया जाना चाहिए। मैं समझता हूँ कि उपेक्षाएँ एवं इच्छाएँ के कुचलने से धर्म प्रगति नहीं कर सकता है। यदि किसी व्यक्ति के पास खाने के लिए नहीं है तब धर्म उसे प्रदान नहीं कर सकता है। यदि बेहतरीन कला, जो कि दिमाग को संतुष्टि प्रदान करती है, को एकदम रोक दिया जाता है तब लोगों पर पड़ने वाला इसका प्रभाव भी विद्यमान नहीं रहेगा और दिमाग तर्कहीन हो जाता है एवं धर्म की उपेक्षा होती है। इसी प्रकार दूसरी ओर यदि रोम के लोभी को लोभ एवं यहूदी का भोगवाद चालू रहता है तबर् कत्ताव्यों को भुला दिया जाएगा। इसलिए काम का समावेश धर्म के साथ किया जाना चाहिए। इसलिए हम एक व्यक्ति के जीवन का मूल्यांकन उचित एवं अंतरंग तरीके से करते हैं। हम, विकासशील शरीर, बौध्दिक दिमाग एवं आत्मा का लक्ष्य संतुलन तरीके से निर्धारित करें। हमें विविध महत्वकांक्षी व्यक्तियों की संतुष्टी के लिए प्रयास करने है ताकि दो महत्वाकांक्षी परस्पर संघर्ष न करें। एकात्म चरित्र में सभी चारों महत्वाकांक्षों एवं व्यक्तिगत रूपों का चित्रण का समावेश है। यह संकल्पना पूर्ण रूप से मानवीय है एवं व्यक्तिगत एकात्म हमारा उद्देश्य एवं रास्ता होना चाहिए। इन एकात्म मानवीय चीजों का समाज के साथ क्या संबंध होना चाहिए एवं इसके प्रति समाज की रुचि कैसे बढ़ाई जा सकती है इस पर कल विचार-विमर्श किया जाएगा।