Deen Dayal Upadhyaya
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December 1967

अध्याय-1, 25 अप्रैल, 1965

-Pt. Deendayal Upadhyaya

काम की गारंटी

यह स्पष्ट है कि संसाधन केवल प्रयासों से ही उपलब्ध हो सकते हैं। अत: जहाँ न्यूनतम आवश्यकताओं की गारंटी ली जाती है, ऐसे समाज में उत्पादन के लिए सहयोग न करने वाला व्यक्ति समाज के लिए भार-स्वरूप है। इसी तरह कोई प्रणाली उत्पादन कार्य में बाधा उत्पन्न करती है, वह अनिष्टदायक ही मानी जाएगी। ऐसी प्रणाली में व्यक्ति अपने उत्तारदायित्वों का कैसे निर्वाह कर पाऐंगे? इतना ही नहीं यदि किसी व्यक्ति की आवश्यकता भी पूर्ण हो जाती है और अपने प्रयासों का अंशदान वह नहीं करता तो उसके व्यक्तित्व का विकास हो ही नहीं सकता और मानव के रूप में वह बोझ ही कहा जाएगा। आदमी के पास पेट भी है और हाथ भी। यदि उसे काम नहीं मिलेगा तो खुशी उसे मिल ही नहीं सकती, ऐसी ही स्थिति पेट की भी है जिसके लिए भरपेट भोजन आवश्यक है। काम के बिना आदमी को असंतोष पैदा नहीं होगा तो और क्या होगा?

हमारी आर्थिक प्रणाली का यह उद्देश्य होना चाहिए कि हर हाथ को काम की वह गारंटी दे। आज बड़ी विचित्र स्थिति को हम समाज में पाते हैं। एक तरफ 10 वर्ष का बच्चा ओर 70 वर्ष का बूढ़ा काम से खट रहा है और दूसरी तरफ 25 वर्ष का जवान काम के अभाव में आत्महत्या करने के लिए विवश है। हमें इस कुव्यवस्था को मिटाना है। भगवान ने सभी को दो हाथ दिए हैं लेकिन हाथों की क्षमता सीमित है। उत्पादन के लिए इन हाथों के साथ हमें मशीनों के रुप में पूंजी की आवश्यकता भी है। श्रम और पूंजी का एक दूसरे से वही रिश्ता है जो कि मानव और प्रकृति का है। इन दोनों में से किसी एक को हम नकार नहीं सकते।

पूंजी - निर्माण

पूंजी निर्माण के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि उत्पादन का एक भाग तत्काल उपभोग के बाद हम बचा कर रखें ताकि भविष्य में इसका पुन: उपयोग किया जा सके। पूंजी निर्माण की यही प्रक्रिया है जिसे कार्ल माक्र्स ने ''अधिशेष मूल्य'' की संज्ञा दी। पूंजीगत व्यवस्था में अधिशेष मूल्य से उद्योगपति पूंजी का सृजन करते है। सामाजिक प्रणाली में यह दायित्व राज्य वहन करता है। दोनों ही प्रणालियों में सकल उत्पादन कामगारों में वितरित नहीं किया जाता। यदि केन्द्रीकृत वृहत-स्तर के उद्योगों के माध्यम से उत्पादन किया जाता है तो कामगारों द्वारा किए गए बलिदान को जो वे पूंजी निर्माण के लिए करते हैं, महत्व नहीं दिया जाता। विकेन्द्रीकरण की व्यवस्था में कामगारों द्वारा पूंजी निर्माण की प्रक्रिया में किए गए प्रयास का महत्व प्रबंध के साथ उनकी सहभागिता के कारण बढ़ जाता है। मशीन पूंजी की मुख्य इकाई है। मशीन का आविष्कार मानवीय श्रम को कम करने और कामगार की उत्पादकता की बढ़ोतरी के लिए हुआ। इसीलिए मशीन एक कामगार अथवा मजदूर की सहायक है न कि उसकी प्रतियोगी। परन्तु जहाँ मानवीय श्रम पैसे से वस्तु खरीदने की तरह माना जाता है, वहाँ मशीन उसकी प्रतियोगी बन जाती है। पूंजीवादी व्यवस्था के दृष्टिकोण की सबसे बड़ी कमी मशीन की मानवीय श्रम से प्रतियोगिता की है और आपसी तुलना के परिणामस्वरुप मशीन के सृजन का उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है। इसके लिए मशीन को दोष नहीं दिया जाना चाहिए। यह आर्थिक और सामाजिक प्रणाली को दोष है जो उद्देश्य तथा उपकरण में भेद नहीं कर सकता। हमें मशीनों की उपयोगिताओं की सीमा के बारे में चिंतन करना होगा और उसे लागू करने के बारे में सोचना होगा। इस उद्देश्य के लिए पाश्चात्य देशों से हमें उन्हीं स्थानों मशीनों का आयात करना होगा जहाँ जनशक्ति की कमी है अन्यथा यह एक गलत कदम होगा। मशीन आधुनिक विज्ञान का एक उत्पाद है लेकिन उसका प्रतिनिधि नहीं है। वैज्ञानिक ज्ञान किसी देश विशेष की बपौती नहीं है लेकिन इसके प्रयोग के लिए प्रत्येक देश की अपनी सीमाएं तथा शर्तें होनी चाहिए। हमारी मशीनें आर्थिक विकास के लिए तो हों लेकिन सामाजिक-राजनैतिक उद्देश्य में भी बाधा न बने, इस संतुलन की हमें आवश्यकता है।

प्रोफेसर विश्वसरैया ने अपनी पुस्तक में यह स्पष्ट किया है कि हमें उत्पादन प्रणाली पर विचार करते हुए सात ''एम'' को ध्यान में रखना होगा जो हैं मानव (मेन), सामग्री (मेटिरियल), धन (मनी), प्रबंध (मैनेजमेंट), प्रेरक शक्ति(मोटिव पॉवर), बाजार (मार्किट) तथा मशीन (मशीन)। कामगारों की दक्षता और योग्यता अथवा जो कुछ भी कार्य के साथ आवश्यक है, उस पर ध्यान देना आवश्यक है। आवश्यक कच्चे माल की उपलब्धता और उपलब्ध कच्चे माल की गुणवत्ताा तथा साज समान अपने आप में महत्वपूर्ण है जिसकी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। हमें यह भी सोचना होगा कि पूंजी के रूप में कितना पैसा उपलब्ध होगा। कैसे इस पूंजी में वृध्दि होगी और किस दर से इसमें वृध्दि होगी अधिकतम उत्पादन के लिए सर्वोत्कृष्ट ढंग से इसका कैसे उपयोग किया जाए? अचल परिसम्पत्तिायों पर कितना और किस तरह धन का उपयोग किया जाए? हमारा ध्यान इसकी ओर भी जाना अपेक्षित है कि देश में जनशक्ति और जानवरों के उपयोग के अतिरिक्त कितनी उर्जा उपलब्ध है। हवा, पानी, स्टीम ऑयल, गैस, बिजली तथा आणुविक शक्ति के माध्यम से कितने उद्योगों को गति मिलती है। कौन सी चीज किस मात्रा में चाहिए और इन सबका हिसाब लगाना भी आर्थिक कार्यकलापों के संपादन के लिए आवश्यक है। कामगारों के साथ तालमेल बैठाना और उनके साथ समन्वय करना भी आवश्यक है, यह भी आवश्यक है कि उन वस्तुओं की उपयोगिता का पता लगाया जाए जो समाज के लिए जरूरी है। इसका अभिप्राय यह है कि वस्तु विशेष का उत्पादन का औचित्य तब तक पता नहीं लग सकता जब तक उसके बाजार की जानकारी नहीं मिलती। इन तथ्यों की जानकारी के बाद ही आवश्यक डिजाइन की मशीनें तैयार की जाती हैं। आज हम मशीनें पहले लगाते हैं और अन्य बातों को बाद में सोचते हैं। संसार के अन्य देश इसी के कारण प्रगति नहीं कर पाए। अन्यथा कई मशीनों पर निवेश नहीं किया जाता। हम मशीनों का आयात कर रहे हैं, अत: हमारा ज्ञान सीमित है। हमें भारतीय प्रौद्योगिकी को विकसित करना होगा।

ये सातों उपादान जिनके बारे में ऊपर कहा गया है अपरिवर्तनीय हैं। योजना बनाने में लगे हुए व्यक्तियों को यह सोचना चाहिए कि परिवर्तन से कहाँ तक प्रगति संभव हो पाएगी, कैसे भौतिक अड़चनों में कमी आ पाएगी और ऊर्जा की क्षति को कैसे रोका जाएगा। हमारे कामगार द्वारा न्यूनतम उत्पादन का उदाहरण लें। मशीनों के प्रयोग से उत्पादन बढ़ सकता है और ऐसा करना जरूरी भी है। यदि मशीनें ऐसी हैं जिनके लिए कुछ ही व्यक्तियों की आवश्यकता है तो ज्यादातर लोगों की छंटनी इस वजह से कर दी जाएगी। यदि अन्य देशों से मशीनें भारी कीमत देकर आयात की जाऐंगी तो अतिरिक्त उत्पादन जो भी अधिक होगा वह उतना ही अधिक होगा जितना कि व्यय नई मशीनों में हुआ है। फिर ऐसी मशीनों का क्या फायदा? देश के लोगों का बेरोजगार रहना क्या बदतर स्थिति नहीं है।

मशीनें तभी लगाई जानी चाहिए यदि पीछे पूंजीगत निवेश से बचत हुई हो, बेरोजगार लोगों के लिए इससे फायदा हो, अनवरत तथा निरंतर संसाधनों की अधिप्राप्ति के लिए यह आवश्यक हो तथा उपयोग की खपत कम से कम दोगुनी हो। अत: इस वाक्य से कि ''प्रत्येक कामगार को खाना चाहिए'' के बजाए हमें यह सोचना चाहिए कि हर ''वह व्यक्ति जो भोजन करता है, उसे काम भी  चाहिए।'' यही हमारी अर्थव्यवस्था का आधार भी होना चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि चरखे के स्थान पर मशीनें आ गई लेकिन आवश्यक नहीं कि सभी जगह स्वचालित मशीनें ही हो। पूर्ण रोजगार के अवसर प्रदान करने का प्रश्न इन सभी बातों पर विचार  करने के उपरांत किया जा सकता है।

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Compiled by Amarjeet Singh, Research Associate & Programme Coordinator, Dr. Syama Prasad Mookerjee Research Foundation, 9, Ashok Road, New Delhi - 110001
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