Deen Dayal Upadhyaya
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December 1967

अध्याय-1, 24 अप्रैल, 1965

-Pt. Deendayal Upadhyaya

रामचंद्र जी की लंका पर चढ़ाई के लिए विभीषण ने मदद की थी जो कि रावण का भाई था। विभीषण का यह कृत्य राजद्रोह न मान कर अच्छा और अनुकरणीय माना गया। उसने अपने भाई के साथ जयचंद की तरह छल किया लेकिन विभीषण को किसी ने भी कपटी की संज्ञा नहीं दी। इसके विपरीत वह अपने सुचरित्र के लिए आज भी याद किया जाता है। ऐसा क्यों यह सोचने का विषय है जिसका कारण राजनैतिक कदापि नहीं था।

किसी भी कार्य के गुण-दोषों का निर्धारण करने की शक्ति अथवा मानक ''चिति शक्ति'' है। प्रकृति से लेकर संस्कृति तक में उसका सर्वव्यापक प्रभाव है। उत्थान, प्रगति और धर्म का मार्ग चिति है। चिति सृजन है और उसके आगे विनाश ही है। चिति ही किसी भी राष्ट्र की आत्मा है जिसके सम्बल पर ही राष्ट्र का निर्माण संभव है। चिति विहीन राष्ट्र की कल्पना व्यर्थ है। वही एक शक्ति है जो मार्ग प्रशस्त करती है श्रध्दा और संस्कृति का। राष्ट्र का हर नागरिक इस ''चिति'' के दायरे में आता है। इतना ही नहीं, राष्ट्रीय हित से जुड़ी संस्थाएं भी इसी ''चिति'' के दायरे में आती हैं। इस प्रकार ''चिति'' में व्यक्ति और राष्ट्र दोनों का ही समावेश है। राष्ट्र से बढ़ कर समूह मानवता का है जहां का समस्त क्षेत्राधिकार भी ''चिति''  को ही जाता है। संक्षेप में एक व्यक्ति को कई पहलुओं की परिधि में रहना पड़ता है। सहयोग, सहिष्णुता तथा शांति के अतिरिक्त मानवीय गुणों से परिपूर्ण मानवता ही अंततोगत्वा मानव मात्र की प्रसन्नता और निरंतर विकास के लिए आवश्यक है।

राष्ट्रीय आवश्यकताओं की संपूर्ति के लिए संस्थाएं

डार्विन का सिध्दान्त है कि मानव ने अपने अंगों का विकास अपनी आवश्यकता तथा परिस्थितियों के अनुसार किया है। हमारे शास्त्रों में इसकी व्याख्या इस प्रकार है कि आत्मा प्राण शक्ति को संचालित करती है और उसी के अनुरूप आवश्यकतानुसार शरीर के अंग कार्य करते हैं। जिस प्रकार आत्मा शरीर के विभिन्न अंगों के संचालन के लिए प्राणशक्ति के माध्यम से उत्तारदायी है, उसी प्रकार किसी राष्ट्र के संचालन के लिए कई संस्थाएं अथवा संगठन राष्ट्रीय लक्ष्य के लिए संचालित होते हैं। एक फैक्ट्री के विभिन्न विभागों की तरह जैसे बिल्डिंग मशीनें, उत्पादन क्रय-विक्रय तथा रख रखाव इत्यादि आवश्यक माने जाते हैं, उसी प्रकार एक देश की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विभिन्न संस्थाएं अस्तित्व में आती हैं।

प्रॉपर्टी तथा विवाह भी संस्था के अन्तर्गत आते हैं। पहले कोई विवाह प्रचलन में नहीं थे लेकिन बाद के ऋषियों ने सामाजिक व्यवस्था के लिए विवाह का प्रचलन करवाया। इसी तरह गुरुकुल तथा ऋषिकुल भी संस्थाएं थी। इसी तरह राज्य भी एक संस्था का ही रूप था। राष्ट्र ने इसे सृजित किया, व्यवस्था के लिए,। पाश्चात्य के राज्य और राष्ट्र में काफी भ्रम पैदा किया जाता है। वे राज्य को भी राष्ट्र के अनुरूप मानते हैं। सच कहा जाए तो राज्य और राष्ट्र एक नहीं है। राज्य तो ''सामाजिक सम्पर्क'' सिध्दान्त की अवधारण के अधीन अस्तित्व में आया। पहले कोई राजा नहीं था। महाभारत में कृतयुग का वर्णन है जहाँ न तो कोई राजा था न ही राज्य। समाज तो धर्म के
आधार पर चलता था।

बाद में असंगठन और विसंगतियाँ समाज में पैदा हुईं लोभ और भूख का साम्राज्यवाद फैल गया। धर्म भावना में कमी आई और ''जिसकी लाठी उसकी भैंस'', वाली कहावत चरितार्थ हो गई। ऋषि इस विकासात्मक व्यवस्था से विचलित हो गए। वे बह्मा के पास गए जिन्होंने उन्हें राज्य की स्थापना की सलाह दी और ''राज्य के नियम तथा कार्य'' नामक स्व-लिखित ग्रंथ उन्हें भेंट किया। उन्होंने पहले राजा के रूप में मनु को राज संचालन की आज्ञा दी। मनु राजा बनने को तैयार नहीं था क्योंकि उसका मानना था कि राजा बन कर उसे दूसरों को दंडित करना पड़ेगा और उन्हें सजा के लिए कारावास में भेजना पड़ेगा। तब बह्मा ने कहा कि राजा के रूप में तुम्हारे इन कार्यों का तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा। समाज में शांति की स्थापना और सौहार्द्रपूर्ण-वातावरण का निर्माण सभी के कर्तव्य के साथ-साथ धर्म के अंतर्गत भी आता है। यदि एक समाज किसी राजा के अधीन अधर्म अथवा पाप में धंसता है तो वह समाज और राजा दोनों के लिए घातक है। दोनों ही इसके लिए उत्तरदायी माने जाएंगे। ऐसा ही अच्छे कार्य, के लिए भी है जिसमें समाज और राजा दोनों को दायित्व जाता है। ''सामाजिक सम्पर्क'' सिध्दान्त के अधीन राज्य अस्तित्व में आया। यह सिध्दान्त राज्य के मामले में लागू होता है न कि राष्ट्र के बारे में। पश्चिम में ठीक इसका उलटा है। समाज के रूप में राष्ट्र, उनकी निगाह में एक करार की तरह है लेकिन राजा को दैविक अधिकार प्राप्त हैं और उसे भगवान का प्रतिनिधि माना जाता है। यह धारणा गलत है। हमारे देश में राष्ट्र को स्वत: जन्मा माना जाता है और राजा को प्रथम नागरिक का अधिकार ही प्राप्त है। राज्य तो केवल एक संस्था मात्र है।

इसी प्रकार राज्य की तरह कई संस्थाएं सृजित की जाती हैं जैसी कि राज्य की आवश्यकता होती है। हर व्यक्ति समाज का अंग माना जाता है और एक संस्था का हिस्सा भी। इससे ऊपर वह राष्ट्र और समाज का भी सदस्य होता है। यदि हम वृहत रूप से विचार करें तो पूरी मानवता का एक हिस्सा है। एक व्यक्ति विराट रूप में विराट से भी जुड़ा हुआ है।

व्यक्ति जो समाज के अंग के रूप में अपने कर्तव्य निर्वाह करते हुए समाज और राष्ट्र के लिए कार्य करता है, वह समृध्द और, प्रसन्न होता है जबकि इसके विपरीत आचरण से वह कभी प्रसन्न और खुशहाल नहीं रह सकता। एक ही व्यक्ति एक व्यक्ति का पिता, भाई, पुत्र और पति होता है और उन सभी रिश्तों का उसे निर्वाह करना पड़ता है। यदि वह शांति और कर्तव्य-परायणता से जीवन निर्वाह करता है तो सुखद और खुशहाल जीवन जीकर राष्ट्र की सेवा करता है जबकि इसके विपरीत आचरण कर वह दुखी और अशांत जीवन जीता है और अपने रिश्तों में भी निरंतर गिरता चला जाता है।

समाज तथा व्यक्ति में परस्पर विरोध नहीं

समाज और व्यक्ति में परस्पर संघर्ष अवनति का कारण है और संस्कृति का ह्रास इसी कारण होता है। पाश्चात्य चिंतन इस बात को स्वीकार करता है कि मौलिक संघर्ष ही प्रगति का कारण है। इसलिए संघर्ष को ही वे प्रगति का कारक मानने की भूल करते हैं। ऐसा ही वर्ग संघर्ष के लिए उनका मानना है।

समाज में वर्ग विद्यमान रहता है और जाति भी। इसीलिए वर्ग और जाति भेद चलता रहता है। विराट पुरुष ने सिर के लिए ब्राहा्रण, हाथों के लिए क्षत्रिय, निचले अंगों के लिए वैश्य तथा पैरों के लिए शुद्रों का सृजन किया। यदि हम इसे स्वीकार करें तो हमें देखना होगा कि सिर, हाथों, पेट तथा पैरों में संघर्ष हो सकता है लेकिन ऐसा नहीं है। एक ही शरीर के विभिन्न अंगों में संघर्ष की कल्पना नहीं की जा सकती। इसके विपरीत इनमें तालमेल आवश्यक है। इसी तरह सामाजिक व्यवस्था में भी तालमेल अत्यावश्यक है। समाज का पतन कई कारणों से होता है और यदि उसकी आत्मा कमजोर हो जाती है तो उसके सभी हिस्से और अंग कमजोर हो जाते हैं। राज्य एक महत्वपूर्ण संस्था है लेकिन फिर भी यह सर्वोपरि नहीं है। आज के हमारे संसार में हर व्यक्ति यह सोचता है कि राज्य एक समाज की तरह है।

राज्य को समाज का प्रतिनिधि माना जाता है और राज्य को राष्ट्र का। राज्य अगर विदेशी हाथों में चला जाता है तो राष्ट्रीय जीवन अस्त व्यस्त हो जाता है। पर्सियन राष्ट्र समाप्त हुए जिसका कारण उनकी स्वतंत्रता का छिन जाना था। हमारे देश में भी विदेशी शासन रहा। पठानों ने दिल्ली का शासन सबसे पहले छीना और बाद में तुर्क, मुगल तथा ब्रिटिश ने हमारे यहाँ हकूमत की। डॉ0 अम्बेडकर ने कहा था कि हमारी ग्राम पंचायते इतनी मजबूत थी कि हमने दिल्ली के राजमुकुट की उपेक्षा की। हम राज्य के लिए सतर्क नहीं रहे जितना कि हमें होना चाहिए था।

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