तृतीय योजना : एक विश्लेषण
(पोलिटिकल डायरी, 21 अगस्त, 1961)
तृतीय पंचवर्षीय योजना लोकसभा में सोमवार, 7 अगस्त को, जब उसका वर्षाकालीन सत्र आरंभ हुआ, प्रस्तुत की गई। योजना का विस्तृत रूप उससे भिन्न नहीं हैं, जैसा पहले प्रारूप में प्रकाश डाला गया था। कुछ कार्यक्रमों पर अधिक विस्तार से प्रकाश डाला गया है, पर बेकारी और मूल्यनीति आदि जैसे मामलों के बारे में, जिन्हें योजना का अंतिम रूप प्रकाश में आने तक के लिए विलंबित कर दिया गया है, योजनाकारें ने कोई स्पष्ट संकेत नहीं दिया है। इसके उद्देश्य, प्राथमिकताएँ और व्यूहरचना द्वितीय योजना में कोई भिन्न नहीं हैं, सिवाए इसके कि खाद्यान्नों में आत्मनिर्भरता और कृषि-उत्पादनों में वृद्धि की बात इस सूची में जोड़ दी गई है। यदि कोई ऐसी बात है जिसे योजनाकारों ने द्वितीय योजनावधि की कठिनाईयों से सीखा है, तो वह यह है कि उन्होंने देश के आर्थिक विकास में कृषि के महत्त्व को कुछ अधिक पैमाने पर अनुभव किया है। फिर भी, हमें बाद में दिखाई देगा और यह खेदजनक है कि योजना के अंतर्गत कार्यक्रमों में इस दिशा में उद्देश्यों और प्राथ्मिकताओं की ओर ध्यान नहीं दिया गया है।
योजना में जिन भौतिक कार्यक्रमों का समावेश है, उनकी अनुमानित लागत सार्वजनिक क्षेत्र में अस्सी अरब रुपए और निजी क्षेत्र में इक्तालीस अरब रुपए हैं। फिर भी, वर्तमान में वित्तीय साधन सार्वजनिक क्षेत्र में पचहत्तर अरब रुपए अनुमानित है। इस प्रकार योजना के भौतिक और आर्थिक पहलुओं के बीच पाँच अरब रुपए का अंतर है, और यदि वह मान्य ही किया जाए कि अनुमान कम ऑंके गए हैं, जैसा कि अधिकांश योजनाओं में होता आया है, तो यह अंतर और अधिक हो सकता है। संभव है, आम चुनावों के ठीक पहले राजनीतिक उपयोगिता की दृष्टि से ऐसी अनेक योजनाओं को सम्मिलित करना आवश्यक समझा गया हो, जिन्हें अंतत: त्याग दिया जा सकता है। फिर भी, इससे मिथ्या अपेक्षाएँ पैदा होती हैं, जिनकी पूर्ति न होने से जनता में निराशा की भावना पैदा होगी।
पचहत्तर लाख रुपए के इस आंकड़े में व्यय का केवल वह भाग सम्मिलित है जिसकी पूर्ति केंद्र सरकार और राज्यों द्वारा की जाने का प्रस्ताव है। इसके अतिरिक्त स्थानीय संस्थाओं, जैसे नगरपालिकाओं, निगमों, ग्राम-पंचायतों और जिला-परिषदों द्वारा भी, जिनका निर्माण हाल ही में सत्ता के विकेंद्रीकरण के नाम पर किया गया है, उनकी अपनी स्थानिय योजनाओं के वित्त-पोषण के लिए या अनुदानों के समकक्ष-पूरक के रूप में साधन जुटाए जाने की आशा है। इसमें विकास-सेवाओं और द्वितीय योजना के अंत तक स्थापित संस्थाओं पर होनेवाले व्यय को भी जोड़ना होगा, जिसकी मात्रा पाँच वर्ष की अवधि में लगभग तीस अरब रुपए होने का अनुमान रहा है। सरकार की आवश्यकताओं की पूर्ति करने के बाद जनता को योजना के निजी क्षेत्रवाले भाग की, जिसकी मात्रा इक्तालीस अरब रुपए आंकी गई है, पूर्ति के लिए भी विभिन्न साधनों का सहारा लेना होगा। बाईस अरब रुपए के विदेशी-पूँजी-आयात-अनुमान को घटा देने के बाद योजना की लागत के मद में जनता को खराखरा एक अरब रुपए को बोझ वहन करना पड़ेगा।
पहली और दूसरी योजनाओं में क्रमश: सैंतीस अरब साठ करोड़ और सत्ततर अरब रुपए पर खर्च हुआ। इस व्यय में से दस वर्ष की अवधि में निजी क्षेत्र ने इक्तालीस अरब रुपए का योगदान किया। दो योजनाओं की अवधि में सार्वजनिक क्षेत्र ने पैसठ अरब पचास करोड़ रुपए व्यय किया। दस वर्ष में पैसठ-पचास अरब रुपए के व्यय की तुलना में पाँच वर्ष में एक खरब बीस अरब रुपए का व्यय एक बड़ी छलांग है, और यदि प्रतिरक्षा के भारी व्यय एवं राष्ट्र के अन्य वायदों को देखते हुए विचारशील लोग इन बोझों को वहन करने की देश की क्षमता के बारे में स्वाभाविक संदेह व्यक्त करते हैं, या आर्थिक स्थिरता के गंभीर रूप से अस्त-व्यस्त हो जाने की शंका करते हैं, तो हमें उन्हें अमहत्त्वाकांक्षी आदि बताकर उनकी उपेक्षा करने के बदले उनकी बात सुननी चाहिए।
योजनाकारों द्वारा केवल एक ही तर्क दिया जा रहा है कि जनता की विशाल आवश्यकताओं की तुलना में योजना बहुत छोटी है। किंतु प्राथमिकताओं का निर्धारण करते समय या क्षेत्रीय योजनाओं को प्रस्तावित करते समय वे इस तर्क को भूल जाते हैं। उपभोक्ता-उद्योगों की पूर्णत: उपेक्षा कर आधारभूत और भारी उद्योगों पर बल देते हुए, देश के उपभोक्ताओं को उनकी उचित आवश्यकताओं से वंचित कर निर्यात बढ़ाने का तर्क देते हुए और उपभोग को नियंत्रित रखने के लिए नए कर लगाते हुए योजनाकार जनता की विशाल आवश्यकताओं के बदले किसी अन्य बात का ही ध्यान रखते हैं। विकास की दीर्घकालिक आवश्यकताओं और बेहतर जीवन स्तर के लिए जनाकांक्षा की पूर्ति की तात्कालिक आवश्यकताओं में संतुलन रखना होगा। हमने योजना-निर्माण की जिस पद्धति को अपनाया है, और जो रूसी आदर्श पर आधारित है, वह यह संतुलन बनाए रखने में विफल हो गई है। तृतीय योजना हमारी अर्थ-व्यवस्था पर पड़ रहे दबाव और तनाव को, जिन्हें हम पिछले सारे वर्षों में अनुभव करते आ रहे हैं, और घनीभूत करेगी।