Deen Dayal Upadhyaya
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स्वातंत्रता स्वयं साध्य नहीं केवल साधन है
(भारत का समन्वयवाद ही पूँजीवाद और तानाशाही के दोषों का हल है)

- दीनदयाल उपाध्याय
(पांचजन्य, आश्विन कृष्ण 2, वि.सं. 2007)

संघ जीवन के शाश्वत् तत्त्वों का उपासक
मेरठ। अब से प्राय: तीन हजार वर्ष पूर्व भारतवर्ष के जन-जीवन में कर्म, चेतना, क्रांति-भावना तथा महत्त्वाकांक्षाओं का उदय हुआ था और उस समय इस देश के समस्त समाज ने अपने-अपने क्षेत्र में उन महत्त्वाकांक्षाओं का प्रटीकरण कला-कौशल तथा वाणिज्य व्यवसाय की उन्नति, छात्रबल के विकास तथा ब्राह्मणों द्वारा स्याम, इंडोचायना, चीन और जापान आदि में ज्ञानदीप के प्रकाश का प्रसार करके वृहत्तर भारत में सांस्कृतिक साम्राज्य की स्थापना द्वारा किया था। वह हमारा स्वर्णयुग था।
'कर्म, चेतना, जनजागरण और महत्त्वाकांक्षाओं के प्रकटीकरण की वह भावना भले ही कभी रुक गई हो परंतु जाह्नवी की धारा के सदृश वह पुन: अब प्रकट हो चली है, और संसार की कोई शक्ति इस प्रवाह को अब रोक नहीं सकती।' उपरोक्त ओजस्वी उद्बोधन द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सहप्रांतीय प्रचारक श्री दीनदयालजी उपाध्याय ने लगभग डेढ़ घंटे तक दिए गए अपने धारा प्रवाहिक सारगर्भित भाषण में गाजियाबाद जिला संघ कार्यकर्ताओं को संघ कार्य में प्रगति करने को प्रेरणा देते हुए विदा किया।
स्वतंत्रता स्वयं साध्य नहीं केवल साधन है। जेल से बाहर हुए आदमी के सदृश कुछ करने के लिए हमारे साथ खुल जाते मात्र हैं, कुछ उत्तरदायित्व हमारे ऊपर आ जाता है। केवल देश के निर्माण करने के लिए भला या बुरा, जैसा भी हम चाहें, हमें स्वतंत्रता प्राप्त हुई है।

पुरुषार्थ चाहिए, नारे नहीं
आज देश के व्याप्त अभावों की पूर्ति के लिए हम सभी व्यग्र हैं, अधिकाधिक परिश्रम करने तथा आदि के नारे भी सभी लगाते हैं। परंतु वस्तुत: नारों के अतिरिक्त अपनी इच्छानुसार सुनहले स्वप्नों, योजनाओं तथा महत्त्वाकांक्षाओं के अनुकूल देश का चित्र निर्माण करने के लिए उचित परिश्रम और पुरुषार्थ करने को हमसे पिचानवें प्रतिशत लोग तैयार नहीं हैं। जिसके अभाव में ये सुंदर-सुंदर चित्र शेखचिल्ली के स्वप्नों के अतिरिक्त और कुछ नहीं। आज सारा देश इस शेखचिल्ली की प्रवृत्ति से ही ग्रसित है। वस्तुत: धन कमानेवाला ही उसका मूल्य समझ सकता है। कोई कुछ भी कहे आज देश में व्याप्त अधिकाधिक अधिकार प्राप्ति की प्रवृत्ति और स्वतंत्रता से कुछ लूट मचाने की इच्छा दिखती है। हमारी स्वतंत्रता जनसाधारण के पुरुषार्थ और पराक्रम से प्राप्त न होने के कारण ही ऐसा है और इसीलिए हममें कर्म चेतना और देश के निर्माण के हेतु परिश्रम करने की भावना नहीं है।

साध्य, साधन का भ्रम
इस समय हम चौराहे पर खड़े हैं और देश तथा समाज के उत्थान के संबंध में निश्चित दृष्टि और प्रगति की एक दिशा का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। हमें यह समझ लेना चाहिए कि जिन साधनों का हमने अब तक पालन किया है उनका आगे भी पालन करना आवश्यक नहीं है। नवीन परिस्थितियों के अनुकूल अपने मार्गों तथा साधन में परिवर्तन करना ही योग्य है। स्वतंत्रता को साधारण समझने के कारण ही आज हमारी यह अवस्था है। परंतु राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्मुख कभी ऐसी समस्या अपनी निश्चित दिशा के संबंध में उपस्थित नहीं हुई। उसके संस्थापक ने आरंभ से ही अपनी दूरदर्शिता के कारण स्पष्ट दृष्टि हम सबको प्रदान की थी। सदैव से ली जानेवाली हमारी प्रतिज्ञा में संघ का ध्येय हिंदू राष्ट्र को स्वतंत्र कर, उसके धर्म, समाज तथा संस्कृति की रक्षा और सर्वांगीण उन्नति और राष्ट्र को परम वैभव के शिखर पर ले जाने के लिए अपने तन-मन-धन तथा सर्वस्व त्याग करने की रही है। इससे स्पष्ट है कि स्वतंत्रता हमारे लिए वेतन साधन मात्र रही है साध्य नहीं। देश के निर्माण में योग देने का हमें अब सुअवसर मिला है, इसका उपयोग करें और देश में स्वर्ण युग की अग्रदूतिका के रूप में वही कर्म चेतना, क्रांति तथा महत्त्वाकांक्षा का निर्माण कर दें।

संघ चिरंतन तत्त्वों का उपासक
संघ पर बहुधा पुरातनवादी, प्रगति विरोधी और प्रतिक्रियावादी होने का आरोप लगाया जाता है। यह सिद्धांत सर्वविदित है कि संसार में सदैव ही परिवर्तन हुआ करते हैं। वस्तुत: प्रत्येक वस्तु में क्षण-क्षण होनेवाला यह परिवर्तन और नवीनता रमणीय है। परंतु 'जो वस्तु' परिवर्तित हुआ रकती है उसके जो तत्त्व जीवन के सत्य तत्त्व हैं वह तो स्थायी हैंनव-निर्माण हम भी चाहते हैं, परंतु इस नव-निर्माण के नाम पर अपने सत्य तत्त्वों के मिलने को भी हम बरदाश्त नहीं कर सकते। 'जीवन का अंत मृत्यु है पचास वर्ष बाद आखिर हमें मरना तो है ही, जीवन का वह अंतिम परिणाम प्राप्त करने के लिए हमें आत्महत्या कर लेनी चाहिए।' इस प्रकार इजिप्ट के एक दार्शनिक का तर्क हमें मान्य नहीं। हम तो जब तक जीवित रहें गौरवपूर्ण ढंग से जीवित रहना चाहते हैं। जीवन के सत्य तत्त्वों का विकास करने के प्रयास में होनेवाले समस्त परिवर्तन हमें मान्य हैं, अपनेपन को संसार के सन्मुख व्यक्त करें तथा उसकी रक्षा, उन्नति और विकास के लिए हम कोई भी आधुनिकतम परिवर्तन स्वीकार करने को उद्यत हैं। ज्ञान-विज्ञान और संस्कृति सभी क्षेत्रों में अपने जीवन के विकास के लिए जो भी आवश्यक होगा, वह हम स्वीकार करेंगे। विजातीय होते हुए भी शारीर के पोषण के लिए आवश्यक अनेकों तत्त्वों को शरीर की सामर्थ्य के अनुसार हम स्वीकार करते हैं। परिवर्तनशीलता के कारण शरीर का चमड़ा बदल जाता है, परंतु केवल नवीनता को ही आदर्श मानकर कृत्रिम तथा अस्वाभाविक उपायों द्वारा शरीर का ही परिवर्तन तो उचित नहीं। केवल मात्र नवीनता के ही पीछे चलकर तो हम अपने जीवन के सत्य तत्त्वों को खो देंगे, हमारा जीवन ही उससे नष्ट हो जाएगा। केवल नवीनता के ही पुजारी बनकर आवश्यक अथवा अनावश्यक सभी कुछ प्राप्त करने की धुन तो बिलकुल उचित नहीं। हम नवीनता के विरोधी नहीं और न प्राचीनता के नाम पर रूढ़ियों और मृत परंपराओं के हम अंध उपासक हैं। मृत पिता या पितामह के शरीर को हम केवल पुराना होने के कारण उसको उठाकर रखने तथा उसकी उपासना करने के पक्ष में नहीं हैं, अपितु उसका आदरपूर्वक हम दाह-संस्कार करके उसका अस्थि विसर्जन करेंगे।
नवीनता की इस धुन में अनेक अभारतीय तत्त्व और विचारधाराएँ हमारे देश में प्रविष्ट हो गई हैं। ऐसी प्रवृत्तियाँ हमारे जीवन के लिए घातक हैं। केवल विजातीय तथा विदेशी होने के कारण ही हम इनका विरोध नहीं करते हैं, दूसरे देशों से प्रेम, सहकार्य, सद्भावना आदि अनेक अपने जीवन के लिए लाभप्रद बातें हम सोच सकते हैं।

व्यक्तिवाद और तानाशाही अवांछनीय
साम्यवाद तथा समाजवाद के सिद्धांत का आधार अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति अपनी सामर्थ्यनुसार कार्य करे और उसकी आवश्यकतानुसार उसे दिया जाए। परंतु इस सिद्धांत का अंतिम परिणाम प्रत्येक देश में तानाशाही होता है क्योंकि यह मानव स्वभाव के प्रतिकूल बैठता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वभाव से ही कार्य कम-से-कम करने का प्रयत्न करता है और आवश्यकताएँ अधिक कबना लेता है। कानून से यह सिद्धांत लागू करने का यही परिणाम होता है और फिर इस सिद्धांत को माननेवाले किसी भी देश में जनता से अधिकतम कार्य कराने और अपनी आवश्यकताएँ कम करने के लिए तानाशाही ही आवश्यक विकल्प होता है। वस्तुत: उपरोक्त सिध्दांतानुसार देश की व्यवस्था भारतीय आदर्शों पर चलने से ही संभव है जहाँ अंतस्फूर्ति से ही अपनी इच्छाओं को दमन कर कम-से-कम आवश्यकताएँ रखनेवाले को ही सम्मान प्राप्त होता है। भारतीय आदर्शनुसार एक कोपीनधारी संन्यासी जिसकी आवश्यकताएँ नगण्य होती हैं और जो निरंतर अथक परिश्रम केवल समाज के ही हेतु करता है, सर्वाधिक सम्मानित माना जाता है। सम्मिलित भारतीय कौटुंबिक जीवन में भी हमें यही देखने को मिलता है कि सर्वाधिक कार्य करनेवाले गृहस्वामी अपनी न्यूनतम आवश्यकताएँ रखता है और अन्य आश्रितों की ही आवश्यकतापूर्ति की ओर ध्यान देना है। जीवन का ध्येय ही आवश्यकतापूर्ति नहीं हो सकता। अपनी आवश्यकतानुसार जो हम चाहेंगे वह ले लेंगे, स्वयं आवश्यकताओं के दास हम नहीं होंगे।
अमेरिका और रूस आज क्रमश: व्यक्तिवाद तथा समष्टिवाद के प्रतीक हैं। व्यक्तिवाद हमें अंत में पूँजीपतियों के हाथ का खिलौना और उनके शोषण का पात्र बनाता है और रूस के सिद्धांत को मानने से मनुष्य का व्यक्तित्व ही समाप्त हो जाता है। हम इन दोनों में समन्वय करके इनका मध्यवर्ती मार्ग अपनाना चाहते हैं, भारतीय विचारधारा ऐसे ही मार्ग को मान्य बताती है।
नवनिर्माण की भावना तथा जीवन के सत्य तत्त्वों को सदैव ही हम अभारतीय तत्त्वों से रक्षा करेंगे और इस प्रकार जीवन के समस्त क्षेत्रों में अपने सत्य तत्त्वों का विकास कर हम संसार को कुछ देने में समर्थ हो सकेंगे और देश के स्वर्ण युग को भी सन्निकट ला सकेंगे।

Compiled by Amarjeet Singh, Research Associate & Programme Coordinator, Dr. Syama Prasad Mookerjee Research Foundation, 9, Ashok Road, New Delhi - 110001
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