Deen Dayal Upadhyaya
Articles

You are here : Home >> Articles >> राष्ट्र जीवन की समस्याएँ

Articles

राष्ट्र जीवन की समस्याएँ

- दीनदयाल उपाध्याय
(राष्ट्र धर्म, शरद पूर्णिमा, वि.सं. 2006, अंक 1)

भारत में एक ही संस्कृति रह सकती है; एक से अधिक संस्कृतियों का नारा देश के टुकड़े-टुकड़े करके हमारे जीवन का विनाश कर देगा। अत: आज लीग का द्विसंस्कृतिवाद, कांग्रेस का प्रच्छन्न द्विसंस्कृतिवाद तथा साम्यवादियों का बहुसंस्कृतिवाद नहीं चल सकता। आज तक एक-संस्कृतिवाद को संप्रदायवाद कहकर ठुकराया गया किंतु अब कांग्रेस के विद्वान भी अपनी गलती समझकर इस एक-संस्कृतिवाद को अपना रहे हैं। इसी भावना और विचार से भारत की एकता तथा अखंडता बनी रह सकती है तथा तभी हम अपनी संपूर्ण समस्याओं को सुलझा सकते हैं।

मनुष्य की अनेक जन्मजात प्रवृत्तियों के समान वह देशभक्ति की भावना को भी स्वभाव से ही प्राप्त करता है। परिस्थितियाँ एवं वातावरण के दबाव से किसी व्यक्ति में यह प्रवृत्ति सुप्त होकर विलीन प्राय हो जाती है। इस प्रकार विकसित देशप्रेम के व्यक्ति अपने कार्यकलापों की प्रेरणा अस्पष्ट एवं क्षीण भावना से न पाकर अपने स्वप्नों के अनुसार अपने देश का निर्माण करने की प्रबल ध्येयवादिता से पाते हैं। भारत में भी प्रत्येक देशभक्त के सम्मुख इस प्रकार का एक ध्येयपथ है तथा वह समझता है कि अपने पथ पर चलाकर ही वह देश को समुन्नत बना सकेगा। आज यह ध्येयपथ यदि एक ही होता तथा सब देशभक्तों के आदर्श भारत का स्वरूप भी एक ही होता तब तो किसी भी प्रकार के विवाद का संघर्ष का प्रश्न नहीं था। किंतु वस्तुस्थिति यह है कि आज भिन्न-भिन्न मार्गों से लोग देश को आगे ले जाना चाहते हैं तथा प्रत्येक का विश्वास है कि उसीका मार्ग सही मार्ग है। अत: हमको इन मार्गों का विश्लेषण करना होगा और उसी समय हम प्रत्येक की वास्तविकता को भी समझ सकेंगे।

चार प्रमुख मार्ग
इन मार्गों को देखते हुए हमें चार प्रधान वर्ग दिखाई देते हैं अर्थवादी, राजनीतिवादी, मतवादी तथा संस्कृतिवादी।
अर्थवादी पहला वर्ग, अर्थवादी संपत्ति को ही सर्वस्व समझता है तथा उसके स्वामित्व एवं वितरण में ही सब प्रकार की दुरवस्था की जड़ मानकर उसमें सुधार करना ही अपना एकमेव कर्तव्य समझता है। उसका एकमेव लक्ष्य 'अर्थ' है। साम्यवादी एवं समाजवादी इस वर्ग के लोग हैं। इनके अनुसार भारत की राजनीति का निर्धारण अर्थनीति के आधार पर होना चाहिए तथा संस्कृति एवं मत को वे गौण समझकर अधिक महत्त्व देने को तैयार नहीं हैं।
राजनीतिवादी दूसरा वर्ग है। यह जीवन का संपूर्ण महत्त्व राजनीतिक प्रमुख प्राप्त करने में ही समझता है तथा राजनीतिक दृष्टि से ही संस्कृति, मजहब तथा अर्थनीति की व्याख्या करता है। अर्थवादी यदि एकदम उद्योगों का राष्ट्रीयकरण अथवा बिना मुआविजा दिए जमींदारी उन्मूलन चाहता है तो राजनीतिवादी अपने राजनीतिक कारणों से ऐसा करने में असमर्थ है। उसके लिए इस प्रकार संस्कृति एवं मजहब का भी मूल्य अपनी राजनीति के लिए ही है, अन्यथा नहीं। इस वर्ग के अधिकांश लोग कांग्रेस में हैं जो आज भारत की राजनीतिक बागडोर सँभाले हुए हैं।
मतवादी तीसरा वर्ग, मजहब परस्त या मतवादी है। इसे धर्मनिष्ठ कहना ठीक नहीं होगा; क्योंकि धर्म मजहब या मत से बड़ा तथा विशाल है। यह वर्ग अपने-अपने मजहब के सिद्धांतों के अनुसार ही देश की राजनीति अथवा अर्थनीति को चलाना चाहता है। इस प्रकार का वर्ग मुल्ला-मौलवियों अथवा रूढ़िवादी कट्टरपंथियों के रूप में अब भी थोड़ा बहुत विद्यमान है, यद्यपि आजकल उसका बहुत प्रभाव नहीं रह गया है।
संस्कृतिवादी चौथा वर्ग है। इसका विश्वास है कि भारत की आत्मा का स्वरूप प्रमुखतया संस्कृति ही है। अत: अपनी संस्कृति की रक्षा एवं विकास ही हमारा कर्तव्य होना चाहिए। यदि हमारा सांस्कृतिक ह्रास हो गया तथा हमने पश्चिम के अर्थ प्रधान अथवा भोग प्रधान जीवन को अपना लिया तो हम निश्चित ही समाप्त हो जाएँगे। यह वर्ग भारत में बहुत बड़ा है। इसके लोग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में तथा कुछ अंशों में कांग्रेस में भी हैं। कांग्रेस के ऐसे लोग राजनीति को केवल संस्कृति का पोषकमात्र ही मानते हैं, संस्कृति का निर्णायक नहीं। हिंदीवादी सब लोग इसी वर्ग के हैं।

मार्गों की प्राचीनता
उपर्युक्त चार वर्गों की विवेचना में यद्यपि हमने आधुनिक शब्दों का प्रयोग किया है। किंतु प्राचीन काल में भी ये चार प्रवृत्तियाँ उपस्थित थीं तथा इनमें से एक प्रवृत्ति को ही अपनाकर हमने अपने जीवन के आदर्श का मानदंड बनाया है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ही ये चार प्रवृत्तियाँ हैं। धर्म संस्कृति का, अर्थ नैतिक वैभव का, काम राजनीतिक आकांक्षाओं का तथा मोक्ष पारलौकिक उन्नति का द्योतक था। इनमें से हमने धर्म को ही अपने जीवन का अंग बनाया है क्योंकि उसके द्वारा ही हमने शेष सबको सधते हुए देखा है। इसीलिए जब महाभारत काल में धर्म की अवहेलना होनी प्रारंभ हुई,

तब महर्षि व्यास ने कहा
'ऊर्ध्वबाहुर्विरोम्येष न च कश्चिच्छणोति मे।
धर्मादर्धश्च कामश्च स धर्म: किं न सेव्यते॥'

अर्थ और काम की ही नहीं, मोक्ष की भी प्राप्ति धर्म से होती है; इसलिए धर्म की व्याख्या करते हुए कहा है कि 'यतोऽभ्युदयनि:श्रेयस सिद्धि: स धर्म:।' जिससे ऐहिक संतान एक है और उसको इस एकता का अनुभव करते हुए रहना चाहिए। अनेक अंगों को इकट्ठा करके शरीर की सृष्टि नहीं होती किंतु शरीर के अनेक अंग होते हैं और इसलिए प्रत्येक अवयव अपने स्वतंत्र अस्तित्व के लिए नहीं अपितु शरीर के अस्तित्व के लिए प्रयत्न करता है। इसी प्रकार राष्ट्र के सभी अंगों को अपनी रूपरेखा राष्ट्रीय स्वरूप और हितों के अनुकूल बनानी चाहिए न कि राष्ट्र को ही इन अंगों के अनुसार काटा छाँटा जाए। संप्रदायों, प्रांतों, भाषाओं और वर्गों का तभी तक मूल्य है जब तक वे राष्ट्र हितों के अनुकूल हैं अन्यथा उनका बलिदान करके भी राष्ट्र की एकता की रक्षा करनी होगी।

प्रथम दृष्टिकोण में अनेक को सत्य मानकर एक की कल्पना का प्रयत्न है तो दूसरे में एक को सत्य मानकर अनेक उसके रूपमात्र हैं जैसे नदी के जल में आवर्त्त – विवर्त्त तरंग आदि अनेक रूप होते हैं किंतु उनका अस्तित्व नदी के जल से भिन्न और स्वतंत्र नहीं और न उनके समुच्चय का ही नाम नदी है। दु:ख का विषय है कि आज भी देश की बागडोर जिनके हाथ में हैं वे प्रथम दृष्टिकोण से ही समस्त समस्याओं को देखते हैं। जब तक राजनीति की इस मौलिक भूल का परिमार्जन नहीं होगा तब तक राजनीतिक भारत का निर्माण सुदृढ़ नींव पर नहीं हो सकता।

धर्म प्रधान भारतीय जीवन
भारतीय जीवन को धर्म प्रधान बनाने का प्रमुख कारण यह था कि इसीमें जीवन के विकास की सबसे अधिक संभावना है। आर्थिक दृष्टिकोण वाले लोग यद्यपि आर्थिक समानता के पक्षपाती हैं, किंतु वे व्यक्ति की राजनीति एवं आत्मिक सत्ता को पूर्णत: समाप्त कर देते हैं। राजनीतिवादी प्रत्येक व्यक्ति को मतदान का अधिकार देकर उसके राजनीतिक व्यक्तित्व की रक्षा तो अवश्य करते हैं किंतु आर्थिक एवं आत्मिक दृष्टि से वे भी अधिक विचार नहीं करते। अथवादी यदि जीवन को भोग प्रधान बनाते हैं तो राजनीतिवादी उसको अधिकार प्रधान बना देते हैं। मतवादी बहुत कुछ अव्यावहारिक, गतिहीन एवं संकुचित हो जाते हैं। किसी-किसी व्यक्ति विशेष अथवा पुस्तक विशेष के विचारों के वे इतने गुलाम हो जाते हैं कि समय के साथ वे अपने आपको नहीं रख पाते तथा इस प्रकार पूर्णत: नष्ट हो जाते हैं। इन सबके विपरीत संस्कृति प्रधान जीवन की यह विशेषता है कि इसमें जीवन के केवल मौलिक तत्त्वों पर तो जोर दिया जाता है पर शेष बाह्य बातों के संबंध में प्रत्येक को स्वतंत्रता रहती है। इसके अनुसार व्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रत्येक क्षेत्र में विकास होता है। संस्कृति किसी काल विशेष अथवा व्यक्ति विशेष के बंधन से जकड़ी हुई नहीं है, अपितु यह तो स्वतंत्र एवं विकासशील जीवन की मौलिक प्रवृत्ति है। इस संस्कृति को ही हमने धर्म कहा है। अत: जब कहा जाता है कि भारतवर्ष धर्म प्रधान देश है तो इसका अर्थ मजहब, मत या रिलीजन नहीं, किंतु यह संस्कृति ही होता है।

भारत की विश्व को देन
हमने देखा है कि भारत की आत्मा को समझना है तो उसे राजनीति अथवा अर्थ नीति के चश्मे से न देखकर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ही देखना होगा। भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के द्वारा न होकर उसकी संस्कृति के द्वारा ही होगी। विश्व को भी यदि हम कुछ सिखा सकते हैं तो उसे अपनी सांस्कृतिक सहिष्णुता एवं कर्तव्य प्रधान जीवन की भावना की ही शिक्षा दे सकते हैं, राजनीति अथवा अर्थ नीति की नहीं। उसमें तो शायद हमको उनसे ही उलटे भीख माँगनी पड़े। अर्थ, काम और मोक्ष के विपरीत धर्म की प्रमुख भावना ने भोग के स्थान पर त्याग, अधिकार के स्थान पर कर्तव्य तथा संकुचित असहिष्णुता के स्थान पर विशाल सहिष्णुता प्रकट की है। इनके साथ ही हम विश्व में गौरव के साथ खड़े हो सकते हैं।

संघर्ष का आधार
भारतीय जीवन का प्रमुख तत्त्व उसकी संस्कृति अथवा धर्म होने के कारण उसके इतिहास में भी जो संघर्ष हुए हैं, वे अपनी संस्कृति की सुरक्षा के लिए ही हुए हैं। तथा इसीके द्वारा हमने विश्व में ख्याति भी प्राप्त की है। हमने बड़े-बड़े साम्राज्यों के निर्माण को महत्त्व न देकर अपने सांस्कृतिक जीवन को पराभूत नहीं होने दिया। यदि हम अपने मध्ययुग का इतिहास देखें तो हमारा वास्तविक युद्ध अपनी संस्कृति के रक्षार्थ ही हुआ है। उसका राजनीतिक स्वरूप यदि कभी प्रकट भी हुआ तो उस संस्कृति की रक्षा के निमित्त ही। राणाप्रताप तथा राजपूतों का युद्ध केवल राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए नहीं था किंतु धार्मिक स्वतंत्रता के लिए ही था। छत्रपति शिवाजी ने अपने स्वतंत्र राज्य की स्थापना गो-ब्राह्मण प्रतिपालन के लिए ही की। सिख-गुरुओं ने अपने युद्ध धर्म की रक्षा के लिए ही किए। इन सबका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि राजनीति का कोई महत्त्व नहीं था तथा राजनीतिक गुलामी हमने सहर्ष स्वीकार कर ली थी; किंतु तात्पर्य यह है कि राजनीति को हमने जीवन का केवल सुख का कारण मात्र माना है, जबकि संस्कृति संपूर्ण जीवन ही है।

संस्कृतियों का संघर्ष
आज भी भारत में प्रमुख समस्या सांस्कृतिक ही है। वह भी आज दो प्रकार से उपस्थित है, प्रथम तो संस्कृति को ही भारतीय जीवन का प्रथम तत्त्व मानना तथा दूसरे यदि इसे मान लें तो उस संस्कृति का रूप कौन सा हो? विचार के लिए यद्यपि यह समस्या दो प्रकार की मालूम होती है, किंतु वास्तव में है एक ही। क्योंकि एक बार संस्कृति का जीवन को प्रमुख एवं आवश्यक तत्त्व मान लेने पर उसके स्वरूप के संबंध में झगड़ा नहीं रहता, न उसके संबंध में किसी प्रकार का मतभेद ही उत्पन्न होता है। यह मतभेद तो तब उत्पन्न होता है जब अन्य तत्त्वों को प्रधानता देकर संस्कृति को उसके अनुरूप उन ढाँचों में ढकने का प्रयत्न किया जाता है।

इस दृष्टि से देखें तो आज भारत में एक-संस्कृतिवाद, द्वि-संस्कृतिवाद तथा बहुसंस्कृतिवाद के नाम से तीन वर्ग दिखाई देते हैं। एक-संस्कृतिवाद के पुरस्कर्ता भारत में केवल एक ही भारतीय संस्कृति का अस्तित्व मानते हैं तथा अन्य संस्कृतियों का या तो अस्तित्व ही मानने को तैयार नहीं हैं या उसके लिए आवश्यक समझते हैं कि वह भारतीय संस्कृति में विलीन हो जाए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा कांग्रेस में श्री पुरुषोत्तमदास टंडन प्रभृति व्यक्ति इसी एक-संस्कृतिवाद के पोषक हैं।

द्वि-संस्कृतिवादी
द्वि-संस्कृतिवादी दो प्रकार के हैं। एक तो स्पष्ट तथा दूसरे प्रच्छन्न। एक वर्ग भारत में स्पष्टतया दो संस्कृतियों का अस्तित्व मानता है तथा उनको बनाए रखने की माँग करता है। मुसलिम लिगी इसी मत के हैं। ये हिंदू और मुसलिम दो संस्कृतियों को मानते हैं तथा उनका आग्रह है कि मुसलमान अपनी संस्कृति की रक्षा अवश्य करेगा। दो संस्कृतियों के आधार पर ही उन्होंने दो राष्ट्रों का सिद्धांत    सामने रखा, जिसके परिणाम को हम पिछले दो वर्षों में भली-भाँति अनुभव कर चुके हैं। प्रच्छन्न द्वि-संस्कृतिवादी वे लोग हैं जो स्पष्टतया तो दो संस्कृतियों का अस्तित्व नहीं मानते, भूल से एक संस्कृति एवं एक राष्ट्र का ही राग अलापते हैं, किंतु व्यवहार में दो संस्कृतियों को मानकर उनका समन्वय करने का असफल प्रयत्न करते हैं। वे ये तो मान लेते हैं कि हिंदू और मुसलमान दो संस्कृतियाँ हैं, किंतु उनको मिलाकर एक नवीन हिंदुस्तानी संस्कृति बनाना चाहते हैं। अत: हिंदी-उर्दू का प्रश्न वे हिंदुस्तानी बनाकर हल करना चाहते हैं तथा अकबर को राष्ट्र पुरुष मानकर अपने राष्ट्र के महापुरुषों के प्रश्न को हल करना चाहते हैं। 'नमस्ते' और 'सलामालेकुम' का काम ये 'आदाब अर्ज' से चला लेना चाहते हैं। यह वर्ग कांग्रेस में बहुमत में है। दो संस्कृतियों के मिलाने के अब तक असफल प्रयत्न हुए हैं किंतु परिणाम विघातक ही रहा है। मुख्य कारण यह है कि जिसको मुसलिम संस्कृति के नाम से पुकारा जाता है वह किसी मजहब की संस्कृति न होकर अनेक अभारतीय संस्कृतियों का समुच्चय मात्र है। फलत: उसमें विदेशीपन है, जिसका मेल भारतीयत्व से बैठना कठिन ही नहीं, असंभव भी है। इसलिए यदि भारत में एक संस्कृति एवं एक राष्ट्र को मानना है तो वह भारतीय संस्कृति एवं भारतीय हिंदू राष्ट्र जिसके अंतर्गत मुसलमान भी आ जाते हैं, के अतिरिक्त और कोई नहीं हो सकता।

बहु-संस्कृतिवादी
बहु-संस्कृतिवादी वे लोग हैं जो प्रांत की निजी संस्कृति मानते हैं तथा उस प्रांत को उस आधार पर आत्मनिर्णय का अधिकार देकर बहुत कुछ अंशों में स्वतंत्र ही मान लेते हैं। साम्यवादी एवं भाषानुसार प्रांतवादी लोग इस वर्ग के हैं। वे भारत में सभी प्रांतों में भारतीय संस्कृति की अखंड धारा का दर्शन नहीं कर पाते।

संस्कृति से भिन्न जीवन का आधार
उपरोक्त तीनों प्रकार के वर्गों का प्रमुख कारण यह है कि उनके सम्मुख संस्कृति-प्रधान जीवन न होकर मजहब, राजनीति अथवा अर्थनीति प्रधान जीवन की है। मुसलिम लीग ने अपने अमूर्त तत्त्व का आधार मुसलिम मजहब समझकर ही भिन्न मुसलिम संस्कृति एवं राष्ट्र का नारा लगाया तथा उसके आधार पर ही अपनी सब नीति निर्धारित की। कांग्रेस का जीवन एवं लक्ष्य राजनीति प्रधान होने के कारण उसने अंग्रेजों का मुकाबला करने के लिए तथा शासन चलाने के लिए सब वर्गों को मिलाकर खड़ा करने का विचार किया, जिसके कारण अप्रत्यक्ष रूप से वर्गों को मिलाकर खड़ा करने का विचार किया, जिसके कारण अप्रत्यक्ष रूप से यह भी द्वि-संस्कृतिवाद का शिकार बन गईं। बहु-संस्कृतिवादी जीवन को अर्थ प्रधान मानते हैं, अत: वे आर्थिक एकता की चिंता करते हुए सांस्कृतिक एकता की ओर से उदासीन रह सकते हैं।

एक राष्ट्र और एक संस्कृति
केवल एक-संस्कृतिवादी लोग ही ऐसे हैं जिनके समक्ष और कोई ध्येय नहीं है तथा जैसाकि हमने देखा, संस्कृति ही भारत की आत्मा होने के कारण वे भारतीयता की रक्षा एवं विकास कर सकते हैं। शेष सब तो पश्चिम का अनुकरण करके या तो पूँजीवाद अथवा रूस की तरह आर्थिक प्रजातंत्र तथा राजनीतिक पूँजीवादी का निर्माण करना चाहते हैं। अत: उनमें सब प्रकार की सद्भावना होते हुए भी इस बात की संभावना कम नहीं है कि उनके द्वारा भी भारतीय आत्मा का तथा भारतीयत्व का विनाश हो जाए। अत: आज की प्रमुख आवश्यकता तो यह है कि एक-संस्कृतिवादियों के साथ पूर्ण सहयोग किया जाए। तभी हम गौरव और वैभव से खड़े हो सकेंगे तथा भारत-विभाजन जैसी भावी दुर्घटनाओं को रोक सकेंगे।

Compiled by Amarjeet Singh, Research Associate & Programme Coordinator, Dr. Syama Prasad Mookerjee Research Foundation, 9, Ashok Road, New Delhi - 110001
Content copyright © Dr. Syama Prasad Mookerjee Research Foundation
Designed & Developed by Dreamlabz Technologies
home page email us