पराशर
(पांचजन्य, भाद्रपद शुक्ल 7, वि.सं. 2005, अगस्त-सितंबर 1948)
बचपन में गाँव की पाठशाला में पढ़ते समय छुट्टी के पहने मुहानी होती थी। एक विद्यार्थी खड़ा होकर गिनती और पहाड़े कहता था और शेष सब दोहराते थे। उस समय 16×9 ही हमको सबसे प्रिय लगता था तथा उसको हम लोग बड़े लहजे के साथ कहते थे 'सोलह नम्मा चलारे चवाल सौ'। शेष सब संख्याओं को उनके साधारण नाम से, क्यों कहा जाता था इसका रहस्य जानने की हमने कभी चिंता नहीं की। किंतु यह सत्य है कि इसको दोहराने में आनंद खूब आता था। एक कारण तो यह हो सकता है कि इसमें छुट्टी के आनंद की कल्पना छिपी हो क्योंकि सोलह नम्मा के बाद ही सोलह दहाई एक सौ साठ कहते ही मुहानी समाप्त हो जाती थी और हम सब अपना-अपना बस्ता, जिसको कि पहले से ही बाँधकर सँभालकर रख दिया जाता था, उठा घर की ओर दौड़ पड़ते थे, फिर चाहे स्कूल से निकल रास्ते खेलते-खाते (आम की अमिया) घर रात होते-होते ही पहुँचते। 'सोलह नम्मा चलारे चवाल सौ' को धीरे-धीरे मस्ती से कहकर दिन भर की थकान भी निकल जाती थी। किंतु इसमें एक खराबी थी, इसकी लंबाई तथा शेष सब संख्याओं की भिन्नता के कारण पंडित जी का, जोकि हमारी मुहानी के समय या तो सीधा बाँधते रहते थे या गाँव के किसी व्यक्ति से बातें करते रहते थे, ध्यान अवश्य आकर्षित हो जाता था और फिर कभी वे दुबारा मुहानी की या किसी पहाड़े विशेष को कहने की आज्ञा दे देते थे। शायद इसीलिए पंडितजी ने 'एक सौ चवालीस' का नामकरण 'चलारे चवाल सौ' कर दिया हो क्योंकि यह तो हम शपथपूर्वक कह सकते हैं कि यह नाम हमको पंडितजी ने ही बताया था।
आगे विद्यार्थी जीवन में चलकर एक सौ चवालीस के और भी अनेक गुण मालूम हो गए, एक सौ चवालीस 18×8, 24×6, 36×4 तथा 12×12 भी होता है किंतु जो आकर्षण 16×9 में है वह आज तक किसी में नहीं मिला।
बाल्य जीवन में एक सौ चवालीस ने जो महत्ता प्राप्त कर ली थी वह आज तक बनी हुई है किंतु अरुचि और विकर्षण का ही भाव है। अंकगणित का एक सौ चवालीस सामाजिक जीवन में बड़ा बलशाली हो गया है। आजकल तो भारतीय जनता एक सौ चवालीस से भली-भाँति परिचित हो गई है तथा कोई भी सामाजिक कार्यकर्ता न होगा जो कभी-न-कभी एक सौ चवालीस के चपेटे में आ गया हो या आते-आते न बच गया हो। यदि आप अब तक न समझें हों तो यह है भारतीय दंड पद्धति विधान की धारा 144।
भारतवर्ष के प्रथम लॉ मेंबर मैकाले के दिमाग की उपज धारा 144 है। देखने में बड़ी सीधी-साधी तथा शब्दों में भी बड़ी मधुर है, हाँ वे मधुर शब्द रसगुल्ले की तरह गोल-गोल हों तो आश्चर्य ही क्या, क्योंकि अंग्रेज का संपूर्ण कानून ही गोल-मोल रहता है। इसमें अपनी इच्छानुसार खींचतान करने की स्वतंत्रता रहती है। धारा 144 आपकी मूलभूत स्वतंत्रताओं पर बंधन लगाने के लिए पैदा हुई है यद्यपि वह बंधन जनहित और जनता की शांति के लिए अथवा उसका नाम लेकर ही लगाया जा सकता है। किंतु जनता के इस हित का निर्णय कोई न्यायाधीश, पंचायत अथवा धारा सभा नहीं करती अपितु जिले का डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट या पुलिस कमिश्नर ही करता है।
किवदंती है कि शासन के लिए इतनी उपयोगी एवं अमूल्य धारा का ज्ञान शासक वर्ग को बहुत दिनों तक नहीं रहा। (मैकाले की आत्मा निश्चिय ही अपने अनुगामियों को कोसती होगी) सन् 1921 में जब सत्याग्रह-संग्राम छिड़ा तो कानूनी समस्या पैदा हुई कि इसको कैसे रोका जाए, आर्डिनेंस बन सकते थे और बने भी किंतु स्थायी कानून की धारा आवश्यक थी। इस समय कहा जाता है कि (कहाँ तक सत्य है?) तत्कालीन लॉ मेंबर सर तेजबहादुर सप्रू ने सरकार को सुझाया कि धारा 144 का उपयोग हो सकता है। शासक वर्ग की मनचाही हो गई। हरेक मजिस्ट्रेट के हाथ में अधिकार आ गया कि वह किसी भी कार्य को धारा 144 के अंतर्गत रोक दे, अथवा गैर कानूनी घोषित कर दे। तब से जो धारा केवल कानून की किताबों की शोभा बढ़ा रही थी चारों ओर उपयोग में आने लगी।
अंग्रेज चले गए किंतु उनका कानून बाकी है और उसके साथ ही धारा 144 भी बाकी है। इतना ही नहीं आज तो धारा 144, कम-से-कम बड़े नगरों के तो जीवन का अंग बन गई है। आए दिन अखबारों में कहीं-न-कहीं धारा 144 लागू करने की घोषणा पढ़ सकती है। एक अवधि समाप्त होते ही दूसरी लग जाती है और दूसरे के बाद तीसरी। कुछ स्थान पर तो अधिकारियों ने यह नियम ही बना रखा है कि धारा 144 बराबर लगाए रखना चाहिए। इसलिए अब कोई जानने का प्रयत्न नहीं करता कि धारा 144 लागू है अथवा नहीं क्योंकि वह मान लेता है कि लागू होगी ही। अखबारों में निकालने और डौंड़ी पीटने की आवश्यकता होने पर भी यह धारा बिना इन झंझटों के भी विशेष संकट या अशांति की स्थिति में अथवा संकट या अशांति की स्थिति कहकर जिला मजिस्ट्रेट के दफ्तर में भी लागू की जा सकती है। आज के शासन का यह किस प्रकार अंग बन गई है, उसके संबंध में एक घटना कही जाती है। एक स्थान पर सार्वजनिक सभा हो रही थी। अकस्मात् वहाँ के मजिस्ट्रेट उस ओर से निकले। उनको सभा होते देख कुछ आश्चर्य हुआ और उसके आयोजनकों को बुलाकर पूछा कि धारा 144 लगे रहने पर सभा किसकी आज्ञा से की गई। एक बार तो आयोजक भी दंग रह गए किंतु उन्होंने नम्रतापूर्वक बताया कि धारा 144 की अवधि तो दो दिन पूर्व समाप्त हो गई तथा उसकी पुनरावृत्ति का उन्हें तो ज्ञान नहीं है। तब कहीं मजिस्ट्रेट महोदय को पता लगा कि सचमुच दो दिन पूर्व धारा 144 की अवधि बीत चुकी थी तथा वे फिर से घोषणा करना भूल गए थे। पहला काम दफ्तर पहुँचकर यही किया गया कि धारा 144 की घोषणा कर दी। वे चाहते तो उसी समय धारा 144 की घोषणा करके सभा को समाप्त करवा सकते थे किंतु ऐसा करना उन्होंने उचित नहीं समझा।
आज-कल धारा 144 को केवल सातत्य ही नहीं प्राप्त हुआ है किंतु उसका सीमा क्षेत्र भी बढ़ गया है। यदि उसे सर्वशक्तिमान का दूसरा स्वरूप कहा जाए तो अत्युक्ति नहीं होगी। साधारणतया धारा 144 के अंतर्गत चार आदमियों से अधिक का किसी सार्वजनिक स्थान पर एकत्रित होना ही रोका जाता था किंतु अब तो सब प्रकार की आज्ञाएँ धारा 144 के अंतर्गत दी जाने लगी हैं। जिस प्रकार जन-सुरक्षा कानून के अंगर्तत किसीको भी पकड़ा जा सकता है उसी प्रकार धारा 144 के अंतर्गत किसी भी कार्य के करने से जन-समाज को रोका जा सकता है। सभा न करने, भाषण न देने तथा ध्वनिवर्द्धक यंत्र का प्रयोग न करने, लाठी आदि हथियार लेकर न चलने की आज्ञाएँ तो धारा 144 के अंतर्गत साधारण हैं। इसके द्वारा आप किसी भी व्यक्ति का आना-जाना रोकते हैं। पाकिस्तान से आनेवाले और पाकिस्तान जानेवाले, हैदराबाद आने-जानेवाले लोगों को धारा 144 ही रोकती है, धारा 144 के अंतर्गत ही आने पर उन्हें पुलिस की रिपोर्ट करनी पड़ती है। इस धारा के अंतर्गत आप ईंट-पत्थर इकट्ठा नहीं कर सकते और न अपने घर की छत पर जोर-जोर से बोल सकते हैं। आपको पतंग का शौक हो तो धारा 144 से सावधान रहिए क्योंकि कभी भी धारा 144 आपको करने से काट ही नहीं देगी, किंतु हवालात की हवा भी खिला देगी। आपकी जीप के गियर और इंजन कितना भी अच्छे क्यों न हों धारा 144 की धार में वह भी न टिक पाएँगी। सरदारजी को कृपार पर कितना ही नाज क्यों न हो किंतु धारा 144 में उसकी भी लंबाई कम करनी पड़ेगी। आप स्थानीय स्वराज्य की दुहाई देते हुए म्युनिसिपेलिटी के मेंबर हैं तो क्या, आपके ऊपर भी धारा 144 अंकुश रखती है तथा आपको कोई भी प्रस्ताव पेश करने से रोका जा सकता है। किसी भी राह चलती स्त्री को छेड़ना नैतिक या अन्य कानून की दृष्टि से वर्जित हो या न हो किंतु धारा 144 आपको इस अशोभनीय कार्य से अवश्य रोक सकती है। गरज यह है कि जैसे मनुष्य में कवि की पहुँच सब स्थानों पर मानी गई तथा कहा गया है कि 'जहाँ न पहुँचे रवि तहाँ पहुँचे कवि' वैसे किसी भी कार्य को सार्वजनिक रूप से रोकने के लिए धारा 144 लगाई जा सकती है तथा किसीको भी बंदी बनाने के लिए जन-सुरक्षा कानून की धारा 3 बनी है। (144 में के अंकों को जोड़कर वर्गमूल निकाल लीजिए)।
धारा 144 के लिए न तो प्रांतीय सरकार की आज्ञा की आवश्यकता है और न उसकी संकट की स्थिति की घोषणा की। यह तो केवल मजिस्ट्रेट की चेरी है और उसकी भू-भंगियों पर नाचती रहती है। पब्लिक-सेफ्टी एक्ट के खिलाफ जनमत हो सकता है, उसको काला कानून कहकर उसके विरुद्ध आवाज उठाई जा सकती है। किंतु धारा 144 के विरुद्ध यह दोषारोपण नहीं किया जा सकता क्योंकि धारा 144 भंग करने पर वह अपने चवालीस साथियों को और बुलाकर दंड-विधान की धारा 188 के अंतर्गत आपको न्यायालय में घसीटकर ला सकती है। यह दूसरी बात है कि आपने चाहे घूमने जाते समय हाथ में छड़ी लेकर ही उसका मान भंग किया हो अथवा साल भर तक आपका मुकदमा पेश न हो पाएँ और हवालाती बनकर जेल की मेहमानी उड़ाते रहें। पब्लिक-सेफ्टी एक्ट का विरोध किया जा सकता है क्योंकि वह नया है किंतु धारा 144 के विरुद्ध कौन आवाज उठा सकता है। वह तो मैकाले का वरदान लेकर जगत् में अवतीर्ण हुई है।
हमारी सार्वजनिक जीवन धारा को रुद्ध करनेवाली धारा 144 धीरे-धीरे पब्लिक से बढ़कर प्राइवेट क्षेत्रों में भी प्रवेश कर रही है। मायाविनी अवसर पड़ने पर अनेक रूप धारण कर लेती है। क्या स्वतंत्रता के इस युग में जब जन-समाज भाषण स्वातंत्र्य आदि के लिए लालायित है, लेखन-स्वतंत्र्य आदि के लिए लालायित है, इस सर्वग्राहिणी धारा का कुछ स्वरूप निश्चित होगा? क्या अंग्रेजों के साथ-साथ हम इस धारा को मैकाले के देश में नहीं भेज सकते?