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दीनदयालजी का पत्र ममेरे भाई के नाम

(पांचजन्य, 29 अप्रैल, 1968)

रात को जब भी ऑंख खुलती है...
ओम्
भुवाली, दिनांक 10 मार्च, 1944
प्रिय बनवारी,
आज शायद जितने विक्षुब्ध हृदय से पत्र लिख रहा हूँ, इस प्रकार शायद अपने जीवन में मैंने कभी नहीं किया होगा। मैं चाहता तो था कि अपने हृदय के इस क्षोभ को अपने ही तक सीमित रखूँ परंतु अब तक का अनुभव बतलाता है कि यह क्रिया अत्यंत वेदनोत्पादक एवं व्यथाकारी है। तुम विचारवान हो एवं संवेदनात्मक रूप से सोचने की तुममें शक्ति है, इसलिए तुमको ही लिख रहा हूँ। 8 तारीख से ही वे मैं तुम्हारी सतत् बाट देख रहा था, वैसे तो मैं जानता था कि तुम नहीं आओगे परंतु एक यों ही आशा लगी हुई थी कि शायद तुम मेरे कार्य की महत्ता का अनुभव कर सको और आ जाओ परंतु तुम शायद न समझ पाए कि मेरा जाना भी मेरी दृष्टि से कितना आवश्यक है। एक स्वयंसेवक के जीवन में संघकार्य का कितना महत्त्व है, काश! तुम इसको समझते होते। तुम जानते हो कि साधारण रूप से जीवनयापन के अनुकूल योग्यता एवं साधन होते हुए भी, उस मार्ग को छोड़कर भिन्न मार्ग ही मैंने स्वीकार किया है। मैं भी सुख-चैन से रहने की इच्छा करता हूँ। मैं यह भी जानता हूँ कि इस प्रकार कार्य करने में कुटुंब का कोई भी व्यक्ति और मामाजी विशेषकर प्रसन्न नहीं हैं, मामाजी ने मुझको पढ़ा-लिखाकर इस योग्य बनाया और अब उनकी इच्छा के विपरीत कार्य करके उनके हृदय को दु:ख देकर, उनकी आशाओं को ठेस पहुँचाकर जो कृतघ्नता का एक पातकीय कृत्य मैंने किया है, उसका मैंने पूर्ण रूपेण विचार किया है एवं इस बुराई के टीके को अपने माथे पर लेकर भी तथा अन्य समस्त बुराई-भलाई का विचार करने के बाद जिस मार्ग को ग्रहण किया है और फिर वह मार्ग भी काँटों से परिपूर्ण है, सदैव इधर-उधर घूमते फिरना, न रहने का ठिकाना, न खाने का ठिकाना, जिसने कहा उसके यहाँ खाया, जहाँ मिला वहाँ रहा आदि अनेकों कठिनाइयों को पहले भी और बाद में अनुभव से जानने पर भी जिस कार्य के लिए अपना समस्त जीवन लगाने का विचार किया है उसका मेरे लिए कितना महत्त्व है, इसको शायद तुम तब ही अनुभव कर पाते जबकि मैं मामाजी को इसी प्रकार छोड़कर यहाँ से चला जाता। मैं जानता हूँ कि यदि मैं दस रुपए का भी कहीं नौकर होता तो इस प्रकार का कार्य करने की हरेक सलाह देता, फिर यह कोई भी नहीं कहता कि नौकरी छोड़कर इस प्रकार पड़े रहोतब तो शायद मामाजी भी और तुम भी और प्रत्येक इस बात की पूरी चिंता रखता कि यदि मैं एक दिन की छुट्टी लेकर आया होता तो ठीक समय पर नौकरी पर पहुँच जाऊँ। इस बात को मैं तुम्हारे और भाई साहब के विषय में देखता हूँ, इसलिए नहीं कि वे तुम दोनों को कोई अधिक प्यार करते हैं वरन् केवल इसलिए कि तुम नौकर हो। तो क्या समाज का कार्य एक नौकरी के बराबर भी महत्त्व नहीं रखता? मैं सोचता हूँ कि यदि मैं कहीं नौकर होता तो आज नौकरी छोड़कर मैं सहर्ष यहाँ पड़ा रहता उसमें मुझे शांति मिलती। मामाजी का मेरे जीवन पर एक विशेष स्थान है और उनके लिए इस प्रकार नौकरी छोड़ना मुझे किसी भी प्रकार नहीं अखरता। जीजी की बीमारी में मैंने अपनी पढ़ाई छोड़ी, छात्रवृत्ति छोड़ी, वह केवल इसलिए कि जीजी के आराम होने से मामाजी को शांति मिलेगी। परंतु आज मेरी शांति नष्ट हो चुकी है। मेरा कर्तव्य मुझे बार-बार पुकारकर कहता है कि मुझे लौटकर जाना चाहिए। रात-दिन मेरे मस्तिष्क में यही चक्कर मन लगाता रहता है और इस मानसिक संघर्ष एवं उथल-पुथल का ही परिणाम है कि आज मैं छोटी-छोटी बातों को भी भूल जाता हूँ। दवा तक देने का समय पर ध्यान नहीं रहता है, परिचर्या के लिए जितनी सतर्कता चाहिए, उतनी इच्छा होते हुए भी नहीं रख पा रहा हूँ, मेरी आत्मा मेरी दुर्बलता पर मुझको सदैव धिक्कारती रहती है, रात्रि को जब भी ऑंख खुल जाती है तो निस्तब्ध वातावरण में आत्मा की प्रतारणा स्पष्ट अनुभव होती है, मेरी कर्तव्यबुध्दि मुझको अपने कार्यक्षेत्र की ओर प्रेरित करती है, पर हृदय की दुर्बलता मुझे अशक्त बना देती है। यह बुध्दि और हृदय का संघर्ष निरंतर चल रहा है, मैं नहीं जानता कि किस दिन मेरा कर्तव्य मेरी दुर्बलता को नष्ट कर देगा और फिर उस दिन शायद प्रत्येक मुझको कोसेगा, मुझे कृतघ्न, धोखेबाज आदि-आदि अनेकों विशेषणों से संबोधित किया जाएगा। परंतु क्या हुआ, एक स्वयंसेवक तो संघकार्य के निमित्त प्रत्येक कलंक को सह सकता है। संघकार्य के निमित्त यदि उसे ऐसे पापकर्म में लीन होना पड़े जिसके लिए कि उसे जन्म-जन्मांतर तक घोर नरक-यातनाएँ भी भुगतनी पड़ें तो उसे भी वह सहर्ष कर जाएगा। समाज का कार्य ही उसके सम्मुख एकमेव कार्य करता है। तुम कहोगे कि ये बड़ी-बड़ी बातें और इतना ओछा व्यवहार! और यही मैं कहता हूँ कि यह मेरे हृदय की दुर्बलता है वह भी केवल मामाजी के लिए। परंतु मैं यह भी जानता हूँ कि मेरी यह दुर्बलता भी अधिक नहीं टिक पाएगी। अपनी ओर से यद्यपि मेरा यही प्रयत्न है कि कम-से-कम मामाजी की बीमारी तक तो मेरा कर्तव्य मेरे ऊपर हावी न हो। इसलिए गीता जो कि मेरे लिए अत्यंत प्रिय पुस्तक है, जिसके एक अध्याय का मैं नित्य पाठ करता था, उसी गीता को तुम्हारे कहने पर भी और मामाजी की इच्छा होने पर भी नहीं सुनाता हूँ वरन् टालमटोल करता रहता हूँ क्योंकि जब-जब मैंने गीता मामाजी को सुनाई है मुझे अनुभव होता है कि उसका एक-एक श्लोक मुझे अपने कर्तव्य की याद दिलाता है, फलत: गीता पाठ के पश्चात् सदैव ही गलानि और चिंता से आवृत हो जाता हूँ। परंतु मेरे प्रयत्नों के बावजूद भी आत्मा की प्रतारणा तो दिन-रात सदैव ही रहती है, जमीन में जिस प्रकार थोड़ा-थोड़ा पानी रिसता जाता है और वही पानी एक बड़े भारी ज्वालामुखी के रूप में फूट पड़ता है, उस रिसते हुए पानी को कोई नहीं रोक सकता है और ज्वालामुखी के उभाड़ को भी; उसी भाँति मैं चाहता हुआ भी अपने कर्तव्य के आकर्षण को रोक नहीं सकता हूँ। मैं इसलिए चाहता हूँ कि कर्तव्य की मैंने जो इतनी बड़ी उपेक्षा की है, उसके लिए थोड़ा सा तो शांति का कार्य कर लूँ। तुम जानते हो कि मुझे ग्यारह बजे तुम्हारी चिट्ठी पीलीभीत में मिली और तीन बजे की गाड़ी से मैं चल दिया, न किसी से कुछ कह पाया और न सुन पाया और न शाखा का प्रबंध ही कर पाया। अब मैं अनुभव करता हूँ कि मैंने यह मूर्खता की परंतु मैं यह कभी सोचकर नहीं चला था कि मैं इस प्रकार अनिश्चित काल के लिए रहूँगामैं तो अधिक-से-अधिक पंद्रह-बीस दिन रहने के विचार से आया था। अब तुम ही सोचो कि इस प्रकार एकाएक चले आने पर क्या तुम करोगे? मैं जानता हूँ कि पहले तो तुम एकाएक इस प्रकार आओगे ही नहीं और आ भी गए तो शीघ्र से शीघ्र लौट जाने का प्रयत्न करोगे, हाँ ठीक-ठाक प्रबंध होने पर एवं उच्च अधिकारियों की आज्ञा मिलने पर फिर शायद निश्चित काल तक रह सकते। मैं नहीं समझता कि मैं क्यों इस प्रकार भाग खड़ा हुआ। एक राष्ट्रीय कार्र्यकत्ता के नाते तो मुझे कुटुंब का इस प्रकार मोह नहीं होना चाहिए था। परंतु हृदय खींच लाया तुम जानते हो कि 'भावना से कर्तव्य ऊँचा है' मैं केवल इसलिए पीलीभीत और लखीमपुर जाना चाहता था कि अब तक जैसे-तैसे भी जो कुछ हुआ सो हुआ अब वहाँ का कुछ स्थायी प्रबंध कर दूँगा तथा इस प्रकार कर्तव्य की क्षति की कुछ पूरी करके अगले जितने दिनों भी यहाँ रहूँ शायद कुछ शांति से रह सकूँ। इसीलिए मैंने तुमसे प्रार्थना की थी, भिक्षा माँगी थी परंतु तुमने उसको ठुकरा दिया और अब मेरा हृदय रो रहा है, जी में आता है कि अब तुम्हारी ओर से इस प्रकार निराश होकर अपने हृदय की भावनाओं को एक ओर फेर कर अपने कर्तव्य क्षेत्र में एकदम लौट जाऊँ। परंतु अभी तो शायद मैं विवश हूँ मुझको यह अवश्य अनुभव हो रहा है कि समाज की दृष्टि से मैंने एक जघन्य कृत्य किया है और उसके लिए पश्चाताप की ओर से मुझको दग्ध होना पड़ेगा।

राष्ट्र कार्य व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर
तुम शायद सोचते होंगे कि आज मेरे ऊपर मुसीबत आई है और उसी मुसीबत में दीनदयाल बजाय सहायक होने के रोड़े अटका रहा है। परंतु मेरी केवल एक ही प्रार्थना है कि तुम जरा भर दृष्टिकोण से सोचो, मेरे कार्य को अधिक नहीं तो कम से कम इतना महत्त्व तो दो जितना कि तुम मेरी नौकरी को देते। मुझे याद है कि जिस समय जयपुर में जीजी बीमार थी, जीजाजी छुट्टी लेकर निरंतर उनके पास थे परंतु गरमी की छुट्टी होने के पहले दो दिन के लिए स्कूल अटैंड (उपस्थित) करने वे भी चले गए थे, केवल इसलिए कि यदि ऐसा न किया गया तो सारी की सारी महीने की छुट्टियाँ उनकी लीव (ग्रीष्मावकाश) में शामिल कर ली जाएँगी और उनको उसकी तनख्वाह नहीं मिलेगी। मरणासन्न रोगी को छोड़कर एक व्यक्ति केवल इतनी थोड़ी सी बात के लिए चला जाए और उसको तुम सब ठीक समझो और यहाँ एक शाखा नष्ट हो रही है, पिछले सारे किये-धरे पर पानी फिर रहा है और उसके प्रबंध के हेतु दो दिन को भी जाने की फुरसत नहीं। तुमको अपने एरियर्स (बकाया वेतन) का खयाल है, सी.ई. की प्रसन्नता-अप्रसन्नता का खयाल है, अपने इंक्रीमेंट्स का खयाल है, आदि-आदि पचासों बातों का खयाल है परंतु राष्ट्र के इस कार्य का खयाल नहीं है, मेरी व्यथा को तुम नहीं जानते हो और न उसकी तुम्हें चिंता ही है। मैं नहीं चाहता कि तुम्हारी आपत्तियों को बढ़ाऊँ, बल्कि मेरा हृदय कहता है कि मैं उसमें सहायक ही होऊँ (यद्यपि कर्तव्य तो मेरा अन्यत्र निश्चित ही है) परंतु मैं नहीं चाहता कि इस प्रकार सहायक होने से अपने जीवन के ध्येय-मार्ग पर जितने कदम आगे बढ़ चुके हैं उनको भी लौटा लूँ। अपने ध्येय के भव्य भवन को आगे मैं न अभी बना पाऊँ, उसको कुछ रुककर बना लूँ, यह हो सकता है, इसमें जो आत्मा को कष्ट होगा उसको सहा जा सकता है, परंतु यह मैं कदापि सहन नहीं कर सकता कि इस भवन को जितना बनाया है उसको भी गिरा दूँ। किसी भी दृष्टि से देखो यह तो मैं अवश्य समझता हूँ कि तुम मेरे इस अधिकार से वंचित नहीं कर सकते कि मैं कम से कम दो चार दिन के लिए जाकर अपने कार्य का निश्चित प्रबंध कर आऊँ। तुम नौकरी कर रहे हो, तुमको जितने दिन की छुट्टी मिलती है उससे अधिक रहने में तुम अपने को विवश समझते हो, भाई साहब का भी यही हाल है और मेरा भी यही होता, यदि मैं नौकर होता, तब यहाँ कौन रहता? मैं निश्चित रूप से कह सकता हूँ, आज चाहे करने को तुम या कोई कुछ भी कह दे कि हममें से कोई भी नौकरी छोड़कर नहीं रहता और न मामाजी भी इस बात को पसंद ही करते। क्या तुम समझते हो कि रुपए का बंधन ही सबकुछ है? अनुशासन का भी तो बंधन है, आत्मा का भी तो बंधन है। आज प्रत्येक को अपने कार्य की चिंता है और मुझसे आशा की जाती है, मैं अपने कार्य को बिलकुल ही भूल जाऊँ, उसका कुछ प्रबंध भी न कर सकूँ। यह कहाँ का न्याय है, मेरी समझ में नहीं आता।
खैर, पत्र बहुत बड़ा हो गया है और इस समय तो विक्षुब्ध हृदय में भाव इतने भरे हैं कि मैं कितना ही लिखता जाऊँ समाप्त न होंगे। इतना अवश्य लिखे देता हूँ कि इस पत्र का एक-एक शब्द मेरी आत्मा से निकला है और मैंने सोच-विचार कर लिखा है। यों ही जोश में आकर नहीं लिखा है। प्रत्येक शब्द सार्थक है और उसके पीछे विचार एवं मेरी कार्यशक्ति की सामर्थ्य है। आज मामाजी ने भी तुम्हारी बहुत बाट देखी, तुम्हारे अथवा तुम्हारे किसी पत्र के न आने से वे बहुत चिंतित रहे। फलत: आज उनका तापमान फिर 100.6 हो गया यद्यपि कल 100 तक ही रहा था। पत्र तो जल्दी-जल्दी डालते रहा करे इससे उनको सांत्वना ही मिलती है।

भाग्याधीन न रह पाऊँगा
पुनश्च: तुम इतवार को कुछ मिनटों के लिए आए। तुमने अपने न आ सकने का कारण बताया। उस पर अविश्वास करने का मुझे कोई भी न्यायसंगत कारण दृष्टिगत नहीं होता है। परंतु तुम्हारे जाने के पश्चात् भाग्य के इस क्रूर कुठाराघात पर हृदय खूब ही रोया तुम शायद विश्वास न करो कि अपने प्रिय बंधु-बांधवों की मृत्यु पर भी जिन ऑंखों में ऑंसू न आए वे ऑंखें भी अश्रु जलपूरित थी। तुमने कहा कि अप्रैल में छुट्टी लूँगा, उस समय आवेश के कारण मैं तुमसे कुछ कह न पाया परंतु अप्रैल की छुट्टी मेरे किस काम की 'का वर्षा जब कृषि सुखानि'। तुम समझते होंगे कि मैंने होली की छुट्टियों में जाने का विचार आकस्मिक ही लिया था या केवल इसीलिए कि तुम्हारी छुट्टियाँ होगी, चलो इन दिनों हो ही आऊँ। नहीं! 5 तारीख को प्रांतीय प्रचारक गोला में आए थे, उनके आगमन एवं आदेश का पूर्वाभास होने के कारण ही मैंने ये दिन निश्चित किए थे और अब तुम कहते हो कि अप्रैल तक जाकर क्या मैं अपना सिर फोड़ूँगा। और अब भी मैं निश्चित करता हूँ कि तुमको छुट्टी नहीं मिलेगी। खैर, आत्मा का संघर्ष मेरे भाग्य में है, भुगतूंगा जब तक कि उसका कोई एकपक्षीय निर्णय न हो जाए। एक बात अवश्य है, वह मैं भाई साहब से भी कह चुका था कि 15 मई से हमारा ओ.टी.सी. कैंप (संघ शिक्षा वर्ग) होता है, अत: 15 मई के बाद मेरा किसी भी दशा में रुकना असंभव हो जाएगा। वैसे तो मेरा खयाल है कि भगवत्कृपा से उस समय तक मामाजी ऐसे हो जाएँगे कि केवल नौकर के साथ अकेले रह सकें, परंतु यदि भाग्य ने तब भी धोखा दिया तो उस समय निश्चित ही मैं भाग्याहीन न रह पाऊँगा, मुझको जाना ही होगा। विचार कर लेना। हाँ, एक और साथ में पत्र रख रहूँ, फिर एक तरफ से आवाज आ रही है, इस विषय में तुम क्या कहोगे? उपेक्षा ही न, पर क्या यह उचित है? जरा शांत हृदय से सोचो।
अच्छा मामाजी की तबियत अभी वैसी ही है। उस दिन जल्दी-जल्दी में तुम से घी के बारे में कहना भूल गया। घी आज समाप्त हो गया है। यहाँ पहाड़ी घी साढ़े चार छटांक का मिलता है, वह भी विश्वास के योग्य नहीं, देशी साढ़े तीन छटांक। अत: किसी प्रकार हो सके तो वहीं छह रुपया, आठ रुपया का या ज्यादा घी भेज देना, तुम्हारा बरतन खाली है, लौट जाएगा। फलों में सेब, अनार भेजने की जरूरत नहीं है। डॉ. शर्मा छुट्टी पर हैं, दो एक दिन में आएँगे। डॉ. श्री खंडे आगरा हैं, अभी राउंड नहीं लगाया है। प्रह्लाद भाई साहब का पत्र आया हो तो लिखना, यहाँ तो कोई पत्र आया नहीं है।
विशेष पत्र लिखना।
(दीनदयाल उपाध्याय)


Compiled by Amarjeet Singh, Research Associate & Programme Coordinator, Dr. Syama Prasad Mookerjee Research Foundation, 9, Ashok Road, New Delhi - 110001
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