Deen Dayal Upadhyaya
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कांग्रेस के 'समाजवादी नारे' से ही कम्युनिस्ट के पैर जमे

- दीनदयाल उपाध्याय
(पांचजन्य, 22 जून, 1959)

मैं दिल्ली जनसंघ के कार्यकर्ताओं को निधि-संग्रह के संबंध में उनके संकल्प की सफल पूर्ति के लिए बधाई देता हूँ। सामान्य नागरिकों से एकत्रित यह निधि दिल्ली की जनता के हृदय में जनसंघ के प्रति बढ़ते हुए प्रेम का परिचायक है। उसके प्रति कृतज्ञता का भाव हमलोगों के मन में सहज ही उत्पन्न होता है। दिल्लीवासियों ने जनसंघ का सभी अवसरों पर हर प्रकार से साथ दिया है। उसके इस सहयोग के बूते पर ही जनसंघ ने भारत की राजनीति में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बनाया है। किंतु अभी तो हमें बहुत कुछ करना है और उसके हेतु जनसंघ के प्रति आत्मीय भावना रखनेवालों को अधिकाधिक बोझ उठाने के लिए तैयार रहना होगा।

राजनीतिक अस्थिरता
भारत की राजनीति दिन-प्रतिदिन अस्थिर होती जा रही है। जिन राज्यों में कांग्रेस को विधान मंडलों से स्पष्ट बहुमत प्राप्त है वहां एक आंतरिक गुटबंदी और संघर्ष का शिकार है। अन्यत्र वह सिद्धांतहीन गठबंधनों और निम्न स्तरीय दांवपेंचों का अवलंबन कर रही है। किसी एक दल के स्पष्ट बहुमत के अभाव में निश्चित कार्यक्रम के आधार पर विभिन्न दलों की समिश्र सरकारों की स्थापना पश्चिमी जनतंत्र की सर्वमान्य कल्पना है। किंतु कांग्रेसियों ने तो अधिनायकवादी शासकों की मनोवृत्ति को अपना लिया है। वे दूसरे दलों के साथ समानता के नाते बातें और व्यवहार करने में अपनी हेठी समझते हैं। उन्हें अपनी मनोवृत्ति बदलनी होगी। साथ ही मैं समझता हूँ कि आनेवाले बहुत वर्षों तक हमारे देश में द्वि-दलीय संसदीय प्रणाली का विकास होना संभव नहीं है। हमें अनेक दलों के अस्तित्व को मानकर बहुदलीय प्रणाली की स्वस्थ परंपराओं का स्वतंत्र विकास करना होगा।

केरल का आंदोलन
इस दृष्टि से मुझे केरल में चल रहा आंदोलन रहस्मय ढंग का लगता है और उसका समर्थन करते हुए संकोच होता है। यह तो स्पष्ट है कि केरल की साम्यवादी सरकार जनता का विश्वास संपादन नहीं कर पाई। कोई भी दल, जिसकी स्फूर्ति और निष्ठा का केंद्र राष्ट्र के बाहर हो, जनता के हिता-हित के साथ एक रूप नहीं हो सकता। जनता के बढ़ते हुए कष्टों के कारण उसके धैर्य की सीमा टूटना भी नितांत स्वाभावित है। ऐसी स्थिति में जनसंघ जनता के इस जन्मजात अधिकार को मान्यता देता है कि वह 'भ्रष्ट और जनहित विरोधी शासन के विरूद्ध आंदोलन करे।' इस पर भी सहमत हुआ जा सकता है कि कम्युनिस्टों की सार्वजनिक एवं जनतांत्रिक उपायों पर कोई आस्था नहीं है और वे उनका दुरुपयोग सुदूर भविष्य में जनतंत्र की हत्या के लिए कर सकते हैं। किंतु फिर भी यह सत्य है कि कांग्रेस एवं अन्य दलों ने आज केरल में यह आंदोलन प्रारंभ करके नीतिमत्ता का परिचय नहीं दिया है।

कम्युनिज्म और कांग्रेस
'क्या हम इस आंदोलन के छिड़ने का कारण यह मानें कि पंडित नेहरू एवं कांग्रेस कर्णधारों को साम्यवादी दल की अराष्ट्रीय वृत्ति एवं उसकी भयावह संभावनाओं का भली प्रकार ज्ञान हो गया है? क्या केरल का आंदोलन इस प्रतीति का परिणाम है? यदि ऐसा है तो हमें केवल केरल का ही नहीं संपूर्ण भारत का विचार करना होगा। यदि ऐसा होता तो यह कम्युनिस्ट विरोधी आंदोलन को केवल केरल तक ही सीमित न रखकर संपूर्ण भारत में छेड़ना चाहिए। कांग्रेस की अब तक की नीति तथा व्यवहार से तो यही लगता है कि वह केवल दलीय हितों को धक्का लगने के कारण केरल का विशेष रूप से विचार कर रही है, अन्यथा, अन्यत्र वह कम्युनिस्टों को सब प्रकार से बढावा ही देती रही है और दे रही है।'

राजा जी का दल
उपाध्याय जी ने बताया, 'यह एक कटु सत्य है कि कांग्रेस के समाजवादी नारे ने कम्युनिस्टों को सबसे अधिक प्रतिष्ठा प्रदान की है। वही उनका लोकप्रियता, प्रचार और शक्ति बुद्धि का सबसे बड़ा संबल रहा है। यह ईश्वर की कृपा है कि देश ने समाजवाद की दुर्बुद्धिपूर्ण विचारधारा को कभी स्वीकार नहीं किया। जनसंघ तो सदैव से उसका विरोध कर ही रहा है। यह प्रसन्नता की बात है कि श्री राजगोपालाचारी जैसे वयोवृद्ध कांग्रेसजन ने भी 'स्वतंत्र दल' के नाम से नई पार्टी को बनाकर समाजवाद विरोधी पथ का ही अनुसरण किया है। इस दल का भविष्य तथा उसका पूरा स्वरूप तो अभी अनिश्चित है। किंतु यह स्पष्ट है कि इसे नए दल के निर्माण ने यह सिध्द कर दिया है कि अब समाजवाद के विरोध मे जनसंघ का स्वर अकेला नहीं है। देश के अन्य महत्त्वपूर्ण तत्त्व भी हमारे साथ हैं। हम अपने नए साथियों का स्वागत करते हैं किंतु हमें स्मरण रखना चाहिए कि असली मोर्चा हमें ही संभालना पड़ेगा।'

जनसंघ का स्वप्न
उन्होंने कहा, 'जनसंघ का 'समाजवाद विरोध' मूलभूत और अपरिवर्तनीय' है क्योंकि उसकी दृष्टि में समाजवाद भारतीय संस्कृति और परंपराओं के लिए पूर्णतया विदेशी है। समाजवाद भारतीय जनता को प्रेरणा देने में असमर्थ रहा है। हमें अन्य विदेशी 'वादों' का सामना करने के लिए किसी एक विदेशी 'वादा' को उधार लेने की आवश्यकता नहीं है। जनसंघ समाजवाद का विरोध पाश्चात्य राजनीति की भूमिका पर खड़ा होकर नहीं करता। सत्य तो यह है कि समाजवाद और पूँजीवाद दोनों ही विदेशी कल्पनाएँ हैं। उनका भारत की प्रकृति और परंपरा से कोई मेल नहीं, अत: जनसंघ भारतीय संस्कृति की मर्यादाओं के आधार पर एक विकेंद्रित समाज-रचना का हामी है, जिसमें राष्ट्र और व्यक्ति दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित हो सके तथा जो व्यक्ति को विकास की पूर्ण स्वतंत्रता देते हुए राष्ट्र को समर्थ और समृद्ध बनाने में सफल हो।

Compiled by Amarjeet Singh, Research Associate & Programme Coordinator, Dr. Syama Prasad Mookerjee Research Foundation, 9, Ashok Road, New Delhi - 110001
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